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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-५ ] [359 (1) भावितात्मा अनगार विद्या आदि के बल से बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना अश्वादिरूपों का अभियोजन नहीं कर सकता। (2) अश्वादिरूपों का अभियोजन करके वह अनेकों योजन जा सकता है, पर वह जाता है अपनी लब्धि, अपनी क्रिया या अपने प्रयोग से / वह सीधा खड़ा भी जा सकता है, पड़ा हुआ भी जा सकता है। (3) अश्वादि का रूप बनाया हुआ वह अनमार अश्व आदि नहीं होता, वह वास्तव में अनगार ही होता है / क्योंकि अश्वादि के रूप में वह साधु ही प्रविष्ट है, इसलिए वह साधु है। अभियोग और वैक्रिय में अन्तर-वैक्रिय रूप किया जाता है-वक्रिय लब्धि वा वैक्रियसमूदघात द्वारा ; जबकि अभियोग किया जाता है--विद्या,मन्त्र,तन्त्र आदि के बल से / अभियोग में मन्त्रादि के जोर से अश्वादि के रूप में प्रवेश करके उसके द्वारा क्रिया कराई जाती है। दोनों के द्वारा रूप. परिवर्तन या विविधरूप निर्माण में समानता दिखलाई देती है, परन्तु दोनों की प्रक्रिया में अन्तर है।' मायो द्वारा विकुर्वणा और अमायो द्वारा अविकुर्वरगा का फल 15. [1] से माते ! कि मायी विकूवति ? अमायी विकूवति ? गोयमा ! मायो विकुवति, नो अमायो विकुन्वति / [15-1 प्र.] भगवन् ! क्या मायीं अनगार, विकुर्वणा करता है, या अमायी अनगार करता है ? [15-1 उ.] गौतम ! मायी अनगार विकुर्वणा करता है, अमायो अनगार विकुर्वणा नहीं करता। [2] माई गं तस्स ठाणस्स प्रणालोइयपडिक्कते कालं करेइ अन्नयरेसु प्राभियोगिएसु देवलोगेसु देवत्ताए उववज्जइ। [15-2] मायी अनगार उस-उस प्रकार का विकुर्वण करने के पश्चात् उस (प्रमादरूप 'दोष) स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल करता है, इस प्रकार वह मृत्यु पाकर आभियोगिक देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है। [3] अमाई णं तस्स ठाणस्स प्रालोइयपडिक्कते कालं करेइ अन्नयरेसु अणामिनोगिएसु देवलोगेसु देवत्ताए उबवज्जइ / सेवं भते 2 ति०। [15-3] किन्तु अमायो (अप्रमत्त) अनगार उस प्रकार को विकुर्वणाक्रिया करने के पश्चात पश्चात्तापपूर्वक उक्त प्रमादरूप दोष-स्थान का पालोचन-प्रतिक्रमण करके काल करता है, और वह मर कर अनाभियोगिकदेवलोकों में से किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है / 1. (क) विद्यापत्तिमुत्तं (मूलपाठटिप्पणयुक्त), भा. 1, पृ. 164-165 (ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 191 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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