________________ 358 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 13. [1] अणगारे णं भते ! भावियपा एगं महं प्रासरूवं वा अभिजु जित्ता [? पभू] अगाई जोयणाई गमित्तए? हंता, पभू। [13-1 प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार, एक बड़े अश्व के रूप का अभियोजन करके अनेक योजन तक जा सकता है ? [13-1 उ.] हां, गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ है। [2] से भंते ! कि प्रायड्ढोए गच्छति, परिड्ढीए गच्छति ? गोयमा ! प्रायड्ढीए गच्छइ, नो परिड्ढोए गच्छइ / [13-2 प्र.] भगवन् ! क्या वह (इतने योजन तक) आत्मऋद्धि से जाता है या पर-ऋद्धि से जाता है ? [13-2 उ.] गौतम ! वह आत्म-ऋद्धि से जाता है, परऋद्धि से नहीं जाता। [3] एवं प्रायकम्मुणा, नो परकम्मुणा / प्रायप्पयोगेणं, नो परप्पयोगेणं / [13-3] इसी प्रकार वह अपनी क्रिया (स्वकर्म) से जाता है, परकर्म से नहीं; आत्मप्रयोग से जाता है, किन्तु परप्रयोग से नहीं / [4] उस्सिपोदगं वा गच्छइ पतोदगं वा गच्छइ / [13-4] वह उच्छ्रितोदय (सीधे खड़े) रूप भी जा सकता है और पतितोदय (पड़े हुए) रूप में भी जा 14. [1] से णं माते ! कि प्रणगारे आसे ? गोयमा ! अणगारे णं से, नो खलु से प्रासे / [14-1 प्र.] बह अश्वरूपधारी भावितात्मा अनगार, क्या (अश्व की विक्रिया के समय) प्रश्व है ? [14-1 उ.] गौतम ! (वास्तव में) वह अनगार है, अश्व नहीं / [2] एवं जाव परासररूवं वा। [14-2] इसी प्रकार पराशर (शरभ या अष्टापद) तक के रूपों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। विवेचन-भावितात्मा अनगार द्वारा अश्वादिरूपों के अभियोगीकरण से सम्बन्धित प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 12 से 14 तक) में भावितात्मा अनगार द्वारा विविध रूपों के अभायोजन के सम्बन्ध में निम्नोक्त तथ्य प्रकट किये गए हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org