________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११) __* [69 [69 मरणकाल-प्ररूपणा 15. से कि तं मरणकाले ? मरणकाले, जोबो वा सरीराओ, सरोरं वा जीवाओ / से तं मरणकाले। [15 प्र.| भगवन् मरणकाल क्या है ? [15 उ.] सुदर्शन ! शरीर से जीव का अथवा जीव से शरीर का (पृथक् होने का काल) मरणकाल है / यह है–मरणकाल का लक्षण / विवेचन–मरणकाल को परिभाषा-जीवन का अन्तिम समय, जब आत्मा शरीर से पृथक् होता है, अथवा शरीर प्रात्मा से पृथक होता है, वह मरणरूप काल मरणकाल कहलाता है। मरण शब्द काल का पर्यायवाची है, अतः मरण ही काल है।' प्रद्धाकाल-प्ररूपणा 16. [1] से कि तं अद्धाकाले ? अद्धाकाले अणेगविहे पन्नत्ते, से गं समययाए आवलियट्टयाए जाव उस्सप्पिणिअट्टयाए / [16-1 प्र,] भगवन् ! प्रद्धाकाल क्या है ? |16-1 उ.] सुदर्शन ! अद्धाकाल अनेक प्रकार का कहा गया है / वह ममयरूप प्रयोजन के लिए है, श्रावलिकारूप प्रयोजन के लिए है, यावत् उत्सर्पिणी-रूप प्रयोजन के लिए है। [2] एस णं सुदंसणा ! अद्धा दोहारच्छेदेणं छिज्जमाणी जाहे विभागं नो हव्वमागच्छति से तं समए समयदुताए। [16-2] हे सुदर्शन ! दो भागों में जिसका छेदन-विभाग न हो सके, वह 'समय' हैं, क्योंकि वह समयरूप प्रयोजन के लिए है। [3] असंखेज्जाणं समयाणं समदयसमितिसमागमेणं सा एगा 'आवलिय' त्ति पवुच्चई। संखेज्जाओ आवलियाओ जहा सालिउद्देसए ( स. 6 उ. 7 सु. 4-7) जाव तं सागरोवमस्स उ एगस्स भवे परीमाणं / [16-3] असंख्य समयों के समुदाय से एक प्रावलिका कहलाती है। संख्यात पावलिका का एक उच्छ्वास होता है, इत्यादि छठे शतक के शालि नामक सातवें उद्देशक (सू. 4-7) में कहे अनुसार यावत्-'यह एक सागरोपम का परिमाण होता है, यहाँ तक जान लेना चाहिए। विवेचन–प्रद्धाकाल : लक्षण, प्रकार एवं प्रयोजन-समय, प्रालिका प्रादि काल, अद्धाकाल कहलाता है। इसके समय, आवलिकादि अनेक भेद हैं / समय से लेकर उत्सपिणी तक जितने भी 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 534 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org