________________ 204] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सचित्तवत अचित्त तेजस्काय के प्रदगल-सचित्त तेजस्काय के पुदगल तो प्रकाश, ताप, उद्योत प्रादि करते ही हैं, वे अवभासित यावत् प्रकाशित भी होते ही हैं, किन्तु अचित्त पुद्गल भी अवभासित होते एवं प्रकाश, ताप, उद्योत आदि करते हैं, यह इस सूत्र का प्राशय है / कुपित साधु द्वारा निकाली हुई तेजोलेश्या के पुद्गल अचित्त होते हैं।' कालोदायी द्वारा तपश्चरण, संल्लेखना और समाधिपूर्वक निर्वाणप्राप्ति 22. तए णं से कालोदाई अणगारे समणं भगवं महावीरं बंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता बहूहि चउत्थ-छ??म जाव अप्पाणं भावेमाणे जहा पढमसए कालासवेसियपुत्ते (स० 1 उ०६ सु० 24) जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति / . ॥सत्तमे सए : दसमो उद्देसो समत्तो॥ // सत्तमं सतं समत्तं // [22] इसके पश्चात् वह कालोदायी अनगार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं। बन्दन-नमस्कार करके बहुत-से चतुर्थ (भक्त-प्रत्याख्यान = उपवास), षष्ठ (भक्तप्रत्याख्यान == दो उपवास-बेला), अष्टम (भक्त-प्रत्याख्यान = तेला) इत्यादि तप द्वारा यावत् अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे; यावत् प्रथम शतक के नौवें उद्देशक (सू. 24) में वणित कालास्यवेषी पुत्र की तरह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त यावत् सब दुःखों से मुक्त हुए। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।' विवेचन-कालोदायी अनगार द्वारा तपश्चरण, संल्लेखना और समाधिमरणपूर्वक निर्वाणप्राप्ति--प्रस्तुत सूत्र में कालास्यवेषी पुत्र को तरह कालोदायी अनगार के भी अन्तिम संल्लेखनासाधना आदि के द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होने का निरूपण किया गया है। // सप्तम शतक : दशम उद्देशक समाप्त / / / / सप्तम शतक सम्पूर्ण // 1. भगवतीसूत्र अ. वृति, पत्रांक 327 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org