________________ 322 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र को तीन समय लगते हैं। (अर्थात-) देवेन्द्र देवराज शक्र का ऊर्ध्व-लोककण्डक (ऊपर जाने में लगने वाला कालमान) सबसे थोड़ा है, और अधोलोककंडक उसकी अपेक्षा संख्येयगुणा है / एक समय में असुरेन्द्र असुरराज चमर जितना क्षेत्र नीचा जा सकता है, उतना ही क्षेत्र नीचा जाने में शकेन्द्र को दो समय लगते हैं और उतना ही क्षेत्र नीचा जाने में वन को तीन समय लगते हैं / (अर्थात्-) असुरेन्द्र असुरराज चमर का अधोलोककण्डक (नीचे गमन का कालमान) सबसे थोड़ा है और ऊर्वलोककण्डक (ऊँचा जाने का कालमान) उससे संख्येयगुणा है। ___ इस कारण से हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र, अपने हाथ से असुरेन्द्र असुरराज चमर को पकड़ने में समर्थ न हो सका। विवेचन-फैकी हुई वस्तु को पकड़ने की देवशक्ति और गमनसामर्थ्य में अन्तर-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 33-34) में क्रमशः दो तथ्यों का निरूपण किया गया है-(१) फैंके हुए पुद्गल को पकड़ने की शक्ति महद्धिकदेव में है या नहीं ? है तो कैसे है ?, (2) यदि महद्धिक देवों में प्रक्षिप्त पुद्गल को पकड़ने की शक्ति है तो शकेन्द्र चमरेन्द्र को क्यों नहीं पकड़ सका ?' निष्कर्ष-(१) मनुष्य की शक्ति नहीं है कि पत्थर, गैद आदि को फेंक कर उसका पीछा करके उसे गन्तव्य स्थल तक पहुँचने से पहले ही पकड़ सके, किन्तु महद्धिक देवों में यह शक्ति इसलिए है कि क्षिप्त पुद्गल की गति पहले तीन होती है, फिर मन्द हो जाती है, जबकि महद्धिक देवों में पहले और बाद में एक-सी तीव्रगति होती है। (2) असुरकुमार देवों की नीचे जाने में तीव्र गति है, ऊपर जाने में मन्द; जबकि वैमानिक देवों की नीचे जाने में मन्दगति है, ऊपर जाने में तीव्र; इस कारण से शकेन्द्र नीचे जाते हुए चमरेन्द्र को पकड़ नहीं सका / ' इन्द्रद्वय एवं वन की ऊर्वादिगति का क्षेत्रकाल की दृष्टि से अल्पबहत्व 35. सक्कस्स णं भंते ! देविदस्स देवरणो उड्ढं आहे तिरियं च गतिविसयस्स कतरे कतरेहितो अप्पे वा, बहुए वा, तुल्ले वा, विसेसाहिए वा? गोयमा ! सम्वत्थोवं खेत्तं सक्के देविदे देवराया अहे भोवयइ एक्केणं समएणं, तिरिय संखेज्जे भागे गच्छइ, उड्ढं संखेज्जे भागे गच्छद।। [35 प्र.] हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र का ऊर्ध्वगमन-विषय, अधोगमन विषय और तिर्यग्गमन विषय, इन तीनों में कौन-सा विषय किन-किन से अल्प है, बहुत (अधिक) है और तुल्य (समान) है, अथवा विशेषाधिक है ? 635 उ.] गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र एक समय में सबसे कम क्षेत्र नीचे जाता है, तिरछा उससे संख्येय भाग जाता है और ऊपर भी संख्येय भाग जाता है। 36. चमरस्स णं भंते ! असुरिदस्स असुररष्णो उड्ढं अहे तिरियं च गतिविसयस कतरे कतरेहितो प्रप्पे वा, बहुए वा, तुल्ले वा, विसेसाहिए वा ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org