________________ 112 ] [ व्याख्याप्रप्तिसूत्र अपच्चक्खाते भवति, से य पुढवि खणमाणे अन्नयरं तसं पाणं विहिंसेज्जा, से णं भंते ! तं वतं प्रतिचरति ? णो इण8 समट्ट, नो खलु से तस्स अतिवाताए प्राउट्टति / [7 प्र.] भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही त्रस-प्राणियों के समारम्भ (हनन) का प्रत्याख्यान कर लिया हो, किन्तु पृथ्वीकाय के समारम्भ (वध) का प्रत्याख्यान नहीं किया हो, उस श्रमणोपासक से पृथ्वी खोदते हुए किसी त्रसजीव की हिंसा हो जाए, तो भगवन् ! क्या उसके व्रत (वसजीववध-प्रत्याख्यान) का उल्लंघन होता है ? [7 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं; क्योंकि वह (श्रमणोपासक) त्रसजीव के अतिपात (वध) के लिए प्रवृत्त नहीं होता। 8. समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव वणस्सतिसमारंभे पच्चक्खाते, से य पुढवि खणमाणे अन्नयरस्स रुक्खस्स मूलं छिदेज्जा, से णं मते ! तं वतं अतिचरति ? णो इण8 सम?, नो खलु से तस्स प्रतिवाताए आउटति / [8 प्र.] भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही वनस्पति के समारम्भ का प्रत्याख्यान किया हो,) (किन्तु पृथ्वी के समारम्भ का प्रत्याख्यान न किया हो,) पृथ्वी को खोदते हुए (उसके हाथ से) किसी वृक्ष का मूल छिन्न हो (कट) जाए, तो भगवन् ! क्या उसका व्रत भंग होता है ? [8 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वह श्रमणोपासक उस (वनस्पति) के अतिपात (वध) के लिए प्रवृत्त नहीं होता। विवेचन–श्रमणोपासक के व्रतप्रत्याख्यान में दोष लगने को शंका का समाधान--प्रस्तुत सूत्रद्वय में त्रसजीवों या वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा का त्याग किये हुए व्यक्तियों को पृथ्वी खोदते समय किसी अस जीव का या वनस्पतिकाय का हनन हो जाने से स्वीकृत व्रतप्रत्याख्यान में अतिचार लगने का निषेध प्रतिपादित किया गया है / अहिंसावत में अतिचार नहीं लगता-त्रसजीववध का या वनस्पतिकायिक-जीववध का प्रत्याख्यान किये हुए श्रमणोपासक से यदि पृथ्वी खोदते समय किसी त्रसजीव की हिंसा हो जाए अथवा किसी वृक्ष की जड़ कट जाए तो उसके द्वारा गृहीत व्रत-प्रत्याख्यान में दोष नहीं लगता, क्योंकि सामान्यतः देश विरति श्रावक के संकल्पपूर्वक आरम्भी हिंसा का त्याग होता है, इसलिए जिन जीवों की हिंसा का उसने प्रत्याख्यान किया है, उन जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा करने में जब तक वह प्रवृत्त नहीं होता, तब तक उसका व्रतभंग नहीं होता / ' श्रमरण या माहन को आहार द्वारा प्रतिलाभित करने वाले श्रमरणोपासक को लाभ 6. समणोवासए णं भते ! तहालवं समणं वा माहणं का फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाणखाइम-साइमेणं पडिलानेमाणे कि लभति ? 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 289 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org