________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१ ] [113 गोयमा ! समणोवासए णं तहारूवं समणं वा माहणं वा जाव पडिलामेमाणे तहास्वस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहि उप्पाएति, समाहिकारए णं तमेव समाहि पडिलमति / [प्र.] भगवन् ! तथारूप (उत्तम) श्रमण और माहन को प्रासुक (अचित्त), एषणीय (भिक्षा में लगने वाले दोषों से रहित) अशन, पान, खादिम और स्वादिम (चविध प्राहार) द्वारा प्रतिलाभित करते (बहराते-विधिपूर्वक देते हुए श्रमणोपासक को क्या लाभ होता है ? [उ.] गौतम ! तथारूप श्रमण या माहन को यावत् प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणो. पासक, तथारूप श्रमण या माहन को समाधि उत्पन्न करता है। उन्हें समाधि प्राप्त कराने वाला श्रमणोपासक उसी समाधि को स्वयं प्राप्त करता है। 10. समणोवासए गंमते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा जाव पडिलामेमाणे कि चयति ? गोयमा! जीवियं चयति, दुच्चयं चयति, दुक्करं करेति, दुल्लभ लभति, बोहि मुज्झति ततो पच्छा सिझति जाव अंतं करेति / [10 प्र.] भगवन् ! तथारूप श्रमण या माहन को यावत् प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणोपासक क्या त्याग (या संचय) करता (देता) है ? [10 उ.] गौतम ! वह श्रमणोपासक जीवित (जीवननिर्वाह के कारणभूत जीवितवत् अन्नपानादि द्रव्य) का त्याग करता--(देता) है, दुस्त्यज वस्तु का त्याग करता है, दुष्कर कार्य करता है दुर्लभ वस्तु का लाभ लेता है, बोधि (सम्यग्दर्शन) का बोध प्राप्त (अनुभव) करता है, उसके पश्चात् वह सिद्ध (मुक्त) होता है, यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। विवेचन–श्रमण या माहन को आहार द्वारा प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक को लाभप्रस्तुत सूत्रद्वय में श्रमण या माहन को आहार देने वाले श्रमणोपासक को प्राप्त होने वाले लाभ एवं विशिष्ट त्याग-संचयलाभ का निरूपण किया गया है। चति क्रिया के विशेष प्रर्थ-मूलपाठ में पाए हए 'चयति' क्रिया पद के फलितार्थ के रूप में शास्त्रकार ने श्रमणोपासक को होने वाले 8 लाभों का निरूपण किया है 1. अन्नपानी देना-जीवनदान देना है, अतः वह जीवन का दान (त्याग) करता है। 2. जीवित की तरह दुस्त्याज्य अन्नादि द्रव्य का दुष्कर त्याग करता है। 3. त्याग का अर्थ अपने से दूर करना-विरहित करना भी है। अत: जीवित की तरह जीवित को अर्थात् कर्मों की दीर्घ स्थिति को दूर करता ह्रस्व करता है / 4. दुष्ट कर्म-द्रव्यों का संचय=दुश्चय है, उसका त्याग करता है / 5. फिर अपूर्वकरण के द्वारा ग्रन्थिभेदरूप दुष्कर कार्य को करता है। 6. इसके फलस्वरूप दुर्लभ-- अनिवृत्तिकरणरूप दुर्लभ वस्तु को उपलब्ध करता है अर्थात् चय = उपार्जन करता है। 7. तत्पश्चात् बोधि का लाभ चय= उपार्जन = अनुभव करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org