SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 712
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम शतक : उद्देशक-1] [111 श्रमणोपाश्रय में बैठकर सामायिक किये हुए श्रमरणोपासक को लगने वाली क्रिया 6. [1] समणोवासगस्स णं भंते ! समाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स तस्स गं भंते ! कि ईरियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जति ? गोतमा! नो इरियावहिया किरिया कज्जति, संपराइया किरिया कज्जति / 6-1 प्र.] भगवन ! श्रमण के उपाश्रय में बैठे हुए सामायिक किये हुए श्रमणोपासक (निर्ग्रन्थ साधुओं के उपासक = श्रावक) को क्या ऐपिथिको क्रिया लगती है, अथवा साम्परायिकी किया लगती है ? [6.1 उ.] गौतम ! उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है, ऐपिथिकी क्रिया नहीं लगती। [7 से केण?णं जाव संपराइया ? गोयमा ! समणोवासयस्स गं सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स प्राया अहिकरणी भवति / आयाहिगरणवत्तियं च णं तस्स नो ईरियावहिया किरिया कज्जति, संपराइया किरिया कज्जति / से तेणट्ठणं जाव संपराइया० / [6-2 प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है ? [6-2 उ.] गौतम ! श्रमणोपाश्रय में बैठे हुए सामायिक किये हुए श्रमणोपासक की आत्मा अधिकरणी (कषाय के साधन से युक्त) होती है। जिसकी प्रात्मा अधिकरण का निमित्त होती है, उसे ऐपिथिकी क्रिया नहीं लगती, किन्तु साम्परायिकी क्रिया लगती है। हे गौतम ! इसी कारण से (कहा गया है कि उसे) यावत् साम्परायिकी क्रिया लगती है। विवेचन-श्रमणोपाश्रय में बैठे हुए सामायिक किये हुए श्रमणोपासक को लगने वाली क्रियाप्रस्तुत सूत्र में श्रमणोपाश्रयासीन सामायिकधारी श्रमणोपासक को साम्परायिक क्रिया लगने की सयुक्तिक प्ररूपणा की गई है। साम्परायिक क्रिया लगने का कारण-जो व्यक्ति सामायिक करके श्रमणोपाश्रय में नहीं बैठा हुआ है, उसे तो साम्परायिक क्रिया लग सकती है, किन्तु इसके विपरीत जो सामायिक करके श्रमणो. पाश्रय में बैठा है, उसे ऐपिथिक क्रिया न लग कर साम्परायिक क्रिया लगने का कारण है, उक्त श्रावक में कषाय का सद्भाव / जब तक ग्रात्मा में कषाय रहेगा, तब तक तन्निमित्तक साम्परायिक क्रिया लगेगी, क्योंकि साम्परायिक क्रिया कषाय के कारण लगती है / पाया अहिकरणी भवति-उसका प्रात्मा=जीव अधिकरण-हल, शकट आदि, कषाय के नाश्रयभत अधिकरण वाला है। श्रमरणोपासक के व्रत-प्रत्याख्यान में अतिचार लगने की शंका का समाधान 7. समणोवासगस्स गं भंते ! पुवामेव तसपाणसमारंभे पच्चपखाते भवति, पुढविसमारंभे 1. भगवतीसूत्र अ. वत्ति, पत्रांक 289 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy