________________ अष्टम शतक : उद्देशक-५] गोयमा ! तस्स णं एवं भवति--णो मे हिरणे, नो में सुवणे नो मे कंसे, नो मे दूसे, नो मे विउलधण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयणमादीए संतसारसावदेज्जे, ममत्तभावे पुण से अपरिणाते भवति, से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-'सभंडं अणुगवेसइ नो परायगं भंडं अणुगवेसइ / [3-2 प्र.] भगवन् ! (जब वह भाण्ड उसके लिए अभाण्ड हो जाता है, तब आप ऐसा क्यों कहते हैं कि वह श्रावक अपने भाण्ड का अन्वेषण करता है, दूसरे के भाण्ड का अन्वेषण नहीं करता? [3-2 उ.] गौतम ! सामायिक आदि करने वाले उस श्रावक के मन में हिरण्य (चांदी) मेरा नहीं है, सुवर्ण मेरा नहीं है, कांस्य (कांसी के बर्तन आदि सामान) मेरा नहीं है, वस्त्र मेरे नहीं हैं तथा विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिलाप्रवाल (मूगा) एवं रक्तरत्न (पद्मरागादि मणि) इत्यादि विद्यमान सारभूत द्रव्य मेरा नहीं है। किन्तु (उन पर) ममत्वभाव का उसने प्रत्याख्यान नहीं किया है। इसी कारण से, हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ कि वह श्रावक अपने भाण्ड का अन्वेषण करता है, दूसरों के भाण्ड (सामान) का अन्वेषण नहीं करता। 4. समणोवासगस्त णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स केइ जायं चरेज्जा, से गं भंते ! कि जायं चरइ, मजायं चरइ? गोयमा ! जायं चरइ, नो प्रजायं चरइ / [4 प्र.] भगवन् ! सामायिक करके श्रमणोपाश्रय में बैठे हुए धावक की पत्नी के साथ कोई लम्पट व्यभिचार करता (भोग भोगता) है, तो क्या वह (व्यभिचारी) जाया (श्रावक की पत्नी) को भोगता है, या अजाया (श्रावक की स्त्री को नहीं, दूसरे की स्त्री) को भोगता है ? [4 उ.] गौतम ! वह (व्यभिचारी पुरुष) उस श्रावक की जाया (पत्नी) को भोगता है, अजाया (श्रावक के सिवाय दूसरे की स्त्री को) नहीं भोगता। 5. [1] तस्स गं भंते ! तेहि सीलब्धय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहि सा जाया अजाया भव? हंता, भवइ। [5-1 प्र.] भगवन् ! शीलवत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास कर लेने से क्या उस श्रावक की वह जाया 'ग्रजाया' हो जाती है ? [5-1 उ.] हाँ, गौतम ! (शीलव्रतादि की साधनावेला में) श्रावक की जाया, अजाया हो जाती है। [2] से केणं खाइ णं अट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ० 'जायं चरइ, नो अजायं चरइ' ? गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ-णो मे माता, णो मे पिता, णो मे माया, णो मे भगिणी, णो मे भज्जा, णो मे पुत्ता, णो मे धता, नो मे सुण्हा, पेज्जबंधणे पुण से अव्वोच्छिन्ने भवइ, से तेणठेणं गोयमा ! जाव नो अजायं चरइ। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org