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________________ 260] [ध्यास्याप्रजस्तिसूत्र पुरुषवेदक हैं, नपुंसकवेदक (बिल्कुल) नहीं हैं। क्रोधकषायी कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं। इसी प्रकार मानकषायी ओर मायाकषायी के विषय में कहना चाहिए। लोभकषायी संख्यात कहे गए हैं / शेष कथन पूर्ववत् जानना चाहिए / (संख्यात विस्तृत आवासों में) उत्पाद, उद्वर्तना और सत्ता, इन तीनों के पालापकों में चार लेश्याएँ कहनी चाहिए। [3] एवं असंखेज्जवित्थडेसु वि, नवरं तिसु वि गमएसु असंखेज्जा भाणियव्वा जाव असंखेज्जा अचरिमा पन्नत्ता। [5-3] असंख्यात योजन विस्तार वाले असुरकुमारावासों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेषता इतनी ही है कि पूर्वोक्त तीनों पालापकों में (संख्यात के बदले) 'असंख्यात' कहना चाहिए। तथा यावत् --'असंख्यात अचरम कहे गए हैं, यहाँ तक कहना चाहिए / 6. केवतिया णं भंते ! नागकुमारावास ? एवं जाव थणियकुमारा, नवरं जत्थ जत्तिया भवणा। [6 प्र.] नागकुमार (इत्यादि भवनबासी) देवों के कितने लाख ग्रावास कहे गए हैं ? [6 उ.] (गौतम ! ) पूर्वोक्त रूप से (नागकुमार से लेकर) यावत् स्तनितकुमार तक (उसी प्रकार) कहना चाहिए। विशेष इतना ही है कि जहाँ जितने लाख भवन हों, वहाँ उतने लाख भवन कहने चाहिए। विवेचन--भवनवासी देवों के आवास, विस्तार आदि की प्ररूपणा-भवनवासी देवों के भवनों की संख्या असु रकुमारों के 64 लाख, नागकुमारों के 84 लाख, सुपर्णकुमारों के 72 लाख, वायुकुमारों के 66 लाख तथा द्वीपकुमार, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और स्तनितकुमार, इन प्रत्येक युगल के 76-76 लाख भवन होते हैं।' भवनवासी देवों के प्रावास (भवन) भी संख्येयविस्तृत और असंख्येयविस्तृत होते हैं। उनके तीन प्रकार के प्रावासों का परिमाण इस प्रकार कहा गया है जंबूदीवसमा खल भवणा, जे हंति सव्वखुडडागा / संखेज्जवित्थडा मज्झिमा उ सेसा असंखेज्जा // अर्थात-भवनपति देवों के जो सबसे छोटे ग्रावास (भवन) होते हैं, वे जम्बूद्वीप के बराबर होते हैं / मध्यम आवास संख्यात योजन-विस्तृत होते हैं और शेष अर्थात्-बड़े प्रावास असंख्यात योजनविस्तृत होते हैं। 1. च उसट्ठी असुराण नागकुमाराण होइ चुलसीई / बावत्तरि कणगाणं, बाउकुमाराण छण्ण उई / / दीवदिसाउदहीण बिज्जूकूमारिदणियमग्गोणं / जुयलाणं पत्तेयं छाबत्तरिमो सयसहस्सा // 2. वही, पत्र 603 -भगवती. अ. बत्ति, पत्र 603 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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