________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 2] [261 वेद आदि की विशेषता-दो ही वेद-देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद ये दो ही वेद होते है, नपुंसकवेद नहीं होता / इसलिए कहा गया है—'दो वेद वाले उत्पन्न होते हैं।' असंज्ञी भी उद्वर्तते हैं। ऐसा कथन इसलिए किया गया है कि असुरकुमार से लेकर ईशान देवलोक तक के देव पृथ्वीकायादि असंज्ञी जीवों में भी उत्पन्न होते हैं। ___ अवधिज्ञानी-दर्शनी नहीं उद्वर्तते—असुरकुमार आदि देवों से च्यवकर निकले (उद्वत्त) हुए जीव तीर्थंकर आदि पद को प्राप्त नहीं करते और न तीर्थकरादि की तरह अवधिज्ञान, अवधिदर्शन लेकर उवत्त होते (निकलते) हैं। क्रोधादि कषाय-असुरकुमार आदि देवों में क्रोध, मान और माया कषाय के उदय वाले जीव तो कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते, किन्तु लोभकषाय के उदय वाले जीव तो सदैव होते हैं। इसलिए कहा गया है कि लोभकषायी संख्यात कहे गये हैं। चार लेश्याएँ-असुरकुमारादि भवनवासी देवों में चार लेश्याएँ (कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या) होती हैं, इसलिए इनके तीनों (उत्पाद, उद्वर्तन और सत्ता) पालापकों में प्रत्येक में चार-चार लेश्याएँ कहनी चाहिए।' वाणव्यन्तर देवों की आवाससंख्या, विस्तार, उत्पाद, उद्वर्त्तना और सत्ता को प्ररूपणा 7. केवतिया णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सा पत्नत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नत्ता। [7 प्र.] भगवन् ! बाण व्यन्तर देवों के कितने लाख प्रावास कहे गये हैं ? [7 उ.j गौतम ! वाणव्यन्तर देवों के आवास असंख्यात लाख कहे गए हैं / 8. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जनित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जवित्थडा, नो असंखेज्जवित्थडा। [8 प्र.] भगवन् ! वे (वाणन्यन्तरावास) संख्येय विस्तृत हैं अथवा असंख्येयविस्तृत ? [8 उ.] गौतम ! वे संख्येयविस्तृत हैं, असंख्येयविस्तृत नहीं। 9. संखेज्जेसु णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सेसु एगसमएणं केवतिया वाणमंतरा उववज्जति? ___ एवं जहा असुरकुमाराणं संखेज्जवित्थडेसु तिणि गमा तहेव भाणियव्वा वाणमंतराण वि तिरिण गमा। | प्र. भगवन् ! वाणन्यन्तरदेवों के संख्येय-विस्तृत (असंख्यात लाख) आवासों में एक समय में कितने वाणव्यन्तर देव उत्पन्न होते हैं / उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार असुरकुमार देवों के संख्येयविस्तृत आवासों के विषय में तीन पालापक (उत्पाद, उद्वर्तन और सत्ता) कहे, उसी प्रकार वाणव्यन्त र देवों के विषय में भी तीनों आलापक कहने चाहिए। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 603 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org