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________________ 262] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-व्यन्तरों के आवास संख्येय विस्तृत ही वाणव्यन्तर देवों के प्रावास असंख्यात योजन विस्तार वाले नहीं होते, वे संख्यात योजन विस्तार वाले ही होते हैं। उनका परिमाण इस प्रकार बताया गया है-- वाणव्यन्तर देवों के सबसे छोटे नगर (आवास) भरतक्षेत्र के बराबर होते हैं, मध्यम आवास महाविदेह के समान होते हैं और सबसे बड़े (उत्कृष्ट) आवास जम्बूद्वीप के समान होते हैं।' ज्योतिष्कदेवों की विमानावास-संख्या, विस्तार एवं विविधविशेषणविशिष्ट की उत्पत्ति आदि को प्ररूपणा 10. केवतिया णं भंते ! जोतिसिविमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा जोतिसिया विमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता। [10 प्र. भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के कितने लाख विमानावास कहे गए हैं ? [10 उ.] गौतम ! ज्योतिष्कदेवों के विमानावास असंख्यात लाख कहे गये हैं। 11. ते गं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा.? एवं जहा वाणमंतराणं तहा जोतिसियाण वि तिनि गमा भाणियव्या, नवरं एगा तेउलेस्सा। उववज्जंतेसु पन्नत्तेसु य प्रसन्नी नत्थि / सेसं तं चेव / [11 प्र.) भगवन् ! वे (ज्योतिष्कविमानावास) संख्येयविस्तृत हैं या असंख्येयविस्तृत ? [11 उ.] गौतम ! (वाणव्यन्तरदेवों के समान वे भी संख्येयविस्तृत होते हैं / ) तथा बाणव्यन्तरदेवों के विषय में जिस प्रकार कहा, उसी प्रकार ज्योतिष्क देवों के विषय में तीन पालापक कहने चाहिए। विशेषता यह है कि इनमें केवल एक तेजोलेश्या ही होती है। व्यन्तरदेवों में असंज्ञी उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहा गया था, किन्तु इनमें असंज्ञी उत्पन्न नहीं होते (न ही उद्वर्ताते हैं और न च्यवते हैं)। शेष सभी कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। विवेचन--ज्योतिष्फदेवों में वाणव्यन्तरदेवों से विशेषता वाणव्यन्तरदेवों से ज्योतिष्कदेवों में अन्तर इतना ही है कि इनमें केवल एक तेजोलेश्या होती है। इनके विमान संख्यात योजन विस्तार बाले तो होते हैं, किन्तु वे होते हैं-एक योजन से भी कम विस्तृत, यानी योजन का भाग होता है / तथा इनमें असंज्ञी जीवों का उत्पाद, उद्वर्तन नहीं होता, न वे सत्ता में होते हैं / अन्य सब बातें वाणव्यन्तरदेवों के समान होती हैं / कल्पवासी, ग्रैवेयक एवं अनुत्तर देवों को विमानवास-संख्या, विस्तार एवं उत्पत्ति आदि को प्ररूपणा 12. सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवतिया विमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता ? गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता। 1. जंबूद्दीवसमा खनु उनकोसेणं हवंति ते नगरा / खड्डा खेत्तसमा खलु, विदेहसमगा उ मज्झिमगा / / -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 603 2. (क) 'एगसट्ठिभाग काऊण जोयणं'–भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 603 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 603 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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