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________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 2] [259 4. ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा असंखेज्जवित्थडा ? गोयमा ! संखेज्जनित्थडा वि असंखज्जवित्थडा वि / [4 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देवों के वे आवास संख्यात योजन विस्तार वाले हैं या असंख्यात योजन विस्तार वाले है ? [4 उ.] गौतम ! (वे) संख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं और असंख्यात योजन विस्तार वाले भी हैं। _ विवेचन–प्रस्तुत तीन सूत्रों (2 से 4 तक) में भवनपति देवों के भेद, आवास एवं उनके विस्तार का प्रतिपादन किया गया है / संख्यात-असंख्यात-विस्तृत भवनपति-प्रावासों में विविध-विशेषण-विशिष्ट असुरकुमारादि से सम्बन्धित उनपचास प्रश्नोत्तर 5. [1] चोयट्ठोए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु प्रसुरकुमारावासेसु एगसमयेणं केवतिया असुरकुमारा उववज्जति ? जाव केवतिया तेउलेस्सा उववज्जति ? केवतिया कण्हपक्खिया उववज्जति ? एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा, तहेव वागरणं, नवरं दोहि वि वेदेहि उववज्जंति, नपुंसगवेयगा न उववति / सेसं तं चेव / [5-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के चौसठ लाख आवासों में से संख्यात योजन विस्तार वाले असुरकुमारावासों में एक समय में कितने असुरकुमार उत्पन्न होते हैं, यावत् कितने तेजोलेश्यी उत्पन्न होते हैं ? [5-1 उ.] (गौतम !) रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में किये गए प्रश्नों के समान (यहाँ भी) प्रश्न करना चाहिए और उसका उत्तर भी उसी प्रकार समझ लेना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ दो वेदों (स्त्री वेद और पुरुषवेद) सहित उत्पन्न होते हैं, नपुंसकवेदी उत्पन्न नहीं होते / शेष सब कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। [2] उध्वट्टतगा वि तहेव, नवरं असण्णी उबट्टति, ओहिनाणी ओहिदसणी य ग उव्वदृति, सेसं तं चेव / पत्नत्तएसु तहेव, नवरं संखेज्जगा इत्थिवेदगा पन्नत्ता। एवं पुरिसवेदगा वि / नपुंसगवेदगा नत्थि / कोहकसायी सिय अस्थि, सिय नस्थि; जइ अस्थि जहन्नेण एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा पन्नत्ता / एवं माण० माय० / संखेज्जा लोभकसायी पन्नत्ता। सेसं तं चेव तिसु वि गमएसु चत्तारि लेस्सायो भाणियवाओ। [5-2] उद्वर्तना के विषय में भी उसी प्रकार जानना चाहिए। विशेषता यह है कि (यहाँ से) असंज्ञी भी उद्वर्तना करते हैं। अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी (यहाँ से) उद्वर्तना नहीं करते / शेष सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए / सत्ता के विषय में जिस प्रकार पहले (प्रथमोद्देशक में) बताया गया है, उसी प्रकार कहना चाहिए। किन्तु विशेष यह है कि वहाँ संख्यात स्त्रीवेदक हैं और संख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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