________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] [653 22. एवं पुहत्तण वि दोण्ह वि / [22] इसी प्रकार (जीव और सिद्ध) दोनों के बहुवचन-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर भी समझ लेने चाहिए। विवेचन-(३) भवसिद्धिकद्वार- इसमें 5 सूत्रों (सू. 18 से 22 तक) में एक या अनेक भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक जीव तथा एक-अनेक नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक जीव और सिद्ध के विषय में क्रमशः भवसिद्धिकभाव अभवसिद्धिकभाव तथा नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व की चर्चा की गई है। परिभाषा-भवसिद्धिक का अर्थ है-भवान्त (संसार का अन्त) करके सिद्धत्व प्राप्त करने के स्वभाव वाला, भव्यजीव / प्रभवसिद्धिक का अर्थ है-अभव्य, जो कदापि संसार का अन्त करके सिद्धत्व प्राप्त नहीं करेगा। नोभवसिद्धिक-नो-अभवसिद्धिक का अर्थ है-जो न तो भव्य रहे हैं, न अभव्य, अर्थात् जो सिद्धत्व प्राप्त कर चुके हैं—सिद्ध जीव / भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक अप्रथम क्यों ?--भवसिद्धिक का भव्यत्व और अभवसिद्धिक का प्रभव्यत्व अनादिसिद्ध पारिणामिक भाव है, इसलिए दोनों क्रमश: भव्यत्व व अभव्यत्व की अपेक्षा से प्रथम नहीं, अप्रथम हैं। दो सूत्र क्यों ?-जब नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक से सिद्ध जीव का ही कथन है, तब एक ही सूत्र से काम चल जाता, दो सूत्रों में उल्लेख क्यों ? वृत्तिकार इसका समाधान करते हैं कि यहाँ पहला सूत्र केवल समुच्चय जीव की अपेक्षा से है, नारकादि की अपेक्षा से नहीं, और दूसरा सूत्र सिद्ध की अपेक्षा से है / इसलिए दोनों पृच्छा-सूत्रों के उत्तर के रूप में इनको प्रथम बताया गया है।' जीव, चौबीस दण्डक एवं सिद्धों में संज्ञी-प्रसंज्ञी-नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्व निरूपण 23. सण्णी णं भंते ! जीवे सण्णिभावेणं कि० पुच्छा। गोयमा ! नो पढमे, प्रपढमे / [23 प्र.] भगवन् ! संज्ञीजीव, संज्ञीभाव को अपेक्षा से प्रथम है या अप्रथम ? [23 उ.] गौतम ! (वह) प्रथम नहीं, अप्रथम है। 24. एवं विलिदियवज्जं जाव वेमाणिए / [24] इसी प्रकार विकलेन्द्रिय (एकेन्द्रिय. द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) को छोड़ कर यावत् वैमानिक तक जानना चाहिए। 25. एवं पुहत्तेण वि। [25] इनकी बहुवचन-सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार जान लेनी चाहिए / 1. भगवती सूत्र, अ. वृत्ति, पत्र 734 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org