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________________ 524] [ আসলিল भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालानो चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सकोरंट जाव धरिज्जमाणेणं महया भडचडगर जाव परिक्खित्ते जेणेव खत्तियकुडगामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता खत्तियकुडग्गामं नगरं मझमझणं जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता तुरए निगिहिइ, तुरए निगिहित्ता रहं ठवेइ, रहे ठवेत्ता रहाओ पच्चोरहइ, रहाओ पच्चोरुहित्ता जेणेव अभितरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव अम्मा-पियरो तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता अम्मा-पियरो जएणं विजएणं वद्धावेइ, बद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खल अम्म ! ताओ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए। [31] जब श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि क्षत्रियकुमार से इस (पूर्वोक्त) प्रकार से कहा तो वह हर्षित और सन्तुष्ट हुआ / उसने श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार किया। फिर उस चार घंटा वाले प्रश्वरथ पर ग्रारूढ हना और रथारूढ हो का भगवान् महावीर के पास से, बहुशाल नामक उद्यान से निकला, यावत् मस्तक पर कोरंटपुष्प की माला से युक्त छत्र धारण किए हुए महान् सुभटों इत्यादि के समूह से परिवत होकर जहाँ क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर था, वहाँ पाया। वहाँ से वह क्षत्रियकुण्डग्राम के बीचोंबीच होता हुआ, जहाँ अपना घर था और जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी, वहाँ आया / वहाँ पहुँचते ही उसने घोड़ों को रोका और रथ को खड़ा कराया। फिर वह रथ से नीचे उतरा और आन्तरिक (अन्दर की) उपस्थानशाला में, जहाँ कि उसके माता-पिता थे, वहाँ पाया / आते ही (माता-पिता के चरणों में नमन करके) उसने जय-विजय शब्दों से बधाया, फिर इस प्रकार कहा 'हे माता-पिता ! मैंने श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुना है, वह धर्म मुझे इष्ट, अत्यन्त इष्ट और रुचिकर प्रतीत हुआ है।' 32. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मा-पियरो एवं धयासि–धन्ने सि णं तुमं जाया !, कयत्थे सि णं तुम जाया, कयपुण्णे सि णं तुमं जाया!, कालखणे सिणं तुम जाया !, जंणं तुमे समणस्स भगवो महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते, से वि य ले धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए। _ [32] यह सुन कर क्षत्रियकुमार जमालि से उसके माता-पिता ने इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! तू धन्य है ! बेटा ! तू कृतार्थ हुआ है / पुत्र ! तू कृतपुण्य (भाग्यशाली) है / पुत्र ! तू कृतलक्षण है कि तूने श्रमण भगवान् महावीरस्वामी से धर्म श्रवण किया है और वह धर्म तुझे इष्ट, विशेष प्रकार से अभीष्ट और रुचिकर लगा है। 33. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मा-पियरो दोच्च पि एवं वयासी–एवं खलु मए अम्म ! तानो! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते जाव अभिरुइए। तए णं अहं अम्म ! ताओ! संसारभउविग्गे, भीए जम्मण-मरणेणं, तं इच्छामि णं अम्म ! ताओ! तुम्भेहि अब्भणुष्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइत्तए / [33] तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि ने दूसरी बार भी अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा-हे माता-पिता ! मैंने श्रमण भगवान् महावीर से वास्तविक धर्म सुना, जो मुझे इष्ट, अभीष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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