________________ नवम शतक : उद्देशक-३३] [523 30. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठ जाव उट्ठाए उठेइ, उट्ठाए उठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वयासी-सद्दहामि गं भंते ! निगथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, रोएमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, अब्भुठेमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! जाब से जहेवं तुन्भे वदह, जं नवरं देवाणुप्पिया! अम्मा-पियरो आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पन्वयामि / अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं / |30| तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर के पास से धर्म सुन कर और उसे हृदयंगम करके हर्षित और सन्तुष्ट क्षत्रियकुमार जमालि यावत् उठा और खड़े होकर उसने श्रमण भगवान महावीरस्वामी को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की यावत् बन्दन-नमन किया और इस प्रकार कहा-- "भगवन् ! मैं निग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर प्रतीति (विश्वास) करता हूँ। भन्ते ! निर्ग्रन्थ-प्रवचन में मेरी रुचि है। भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन के अनुसार चलने के लिए अभ्युद्यत हुआ हूँ / भन्ते ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन तथ्य है, सत्य (अवितथ) है; भगवन् ! यह असंदिग्ध है, यावत् जैसा कि आप कहते हैं। किन्तु हे देवानुप्रिय ! (प्रभो ! ) मैं अपने माता-पिता को (घर जाकर) पूछता हूँ और उनकी अनुज्ञा लेकर (गृहवास का परित्याग करके) आप देवानुप्रिय के समीप मुण्डित हो कर अगारधर्म से अनगारधर्म में प्रदजित होना चाहता हूँ।" (भगवान् ने कहा-) "देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो, / " विवेचन-जमालि द्वारा प्रवचन-श्रवण, श्रद्धा और प्रव्रज्यासंकल्प-प्रस्तुत दो सूत्रों (26-30 सू.) में वर्णन है कि जमालि भगवदुपदेश सुन कर अत्यन्त प्रभावित हुआ, उसे संसार से विरक्ति हो गई। उसने विनयपूर्वक अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति के साथ अनगारधर्म में दोक्षित होने को अभिलाषा व्यक्ति को / भगवान् ने उसकी बात सुन कर इच्छानुसार कार्य करने का परामर्श दिया।' ___ अभुट्ठमि आदि पदों का भावार्थ-अभुमि = मैं अभ्युद्यत (तत्पर) हूँ। अवितह = अवितथ - सत्य / तहमेयं = यह तथ्य-यथार्थ है / असंदिद्ध-संदेहरहित है / 'श्रद्धा' आदि पदों का भावार्थ-श्रद्धा-तर्करहित विश्वास, प्रतीति- तर्क और युक्तिपूर्वक / विश्वास, रुचि- श्रद्धा के अनुसार चलने की इच्छा / अभ्युत्थानेच्छा = निग्रन्थ-प्रवचनानुसार प्रवृत्ति के लिए उद्यत होने की इच्छा / 2 माता-पिता से दीक्षा की अनुज्ञा का अनुरोध 31. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठ० समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता तमेव चाउघंटे सरहं दुरूहेइ, दुहिता समणस्स 1. वियाहप. (मू. पा. टि.) भा. 1, पृ. 458.459 2. भगवती. भा. 4 (पं. घे.) 5. 1712, 1715 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org