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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१) [267 सामानिक देव, 16-16 हजार प्रात्मरक्षक और चार-चार अग्रमहिषियों होती हैं / ज्योतिष्क देवेन्द्रों के त्रास्त्रिश और लोकपाल नहीं होते / वैक्रियशक्ति–इनमें से दक्षिण के देव और सूर्यदेव अपने वैक्रियकृत रूपों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को ठसाठस भरने में समर्थ हैं, और उत्तरदिशा के देव और चन्द्रदेव अपने वैक्रियकृत रूपों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप से कुछ अधिक स्थल को भरने में समर्थ हैं। दो गणधरों की पृच्छा-इन सब में दक्षिण के इन्द्रों और सूर्य के विषय में द्वितीय गणधर श्री अग्निभूति द्वारा पृच्छा की गई है, जबकि उत्तर के इन्द्रों और चन्द्र के विषय में तृतीय गणधर श्री वायुभूति द्वारा पृच्छा की गई है।" शक्रेन्द्र, तिष्यक देव तथा शक के सामानिक देवों की ऋद्धि, विकुर्वरणाशक्ति प्रादि का निरूपण 15. 'भंते !' ति भगवं दोच्ने गोयमे अग्गिभूती प्रणगारे समणं भगवं म. वंदति नमंसति, 2 एवं क्यासी–जति णं भंते ! जोतिसिदे जोतिसराया एमहिड्ढोए जाव एवतियं च गं पभ विकुन्वित्तए सक्के गं भते ! देविदे देवराया केमहिड्ढोए जाव केवतियं च णं पभू विउवित्तए ? गोयमा! सक्के गं देविदे देवराया महिड्ढोए जाव महाणुभागे। से णं तस्थ बत्तोसाए विमाणावाससयसहस्साणं चउरासीए सामाणियसाहस्सोणं जावर चउण्हं च उरासोणं प्रायरक्खदेवसाहस्सोणं अन्नेसि च नाव विहरइ / एमहिड्ढोए जाव एवतियं च णं पभू विकुवित्तए / एवं जहेव चमरस्स तहेव भाणियन्वं, नवरं दो केवलकप्पे जंबुद्दोवे दीवे, अवसेसं तं चेव / एस णं गोयमा ! 1. (क) भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 157-158 (ब) तत्त्वार्थसूत्र अ. 4, मू. 6 व 11 का भाष्य पृ. 92 (ग) प्रजापनासूत्र में अंकित गाथाएँ चमरे धरणे तह वेणुदेव-हरिकत-प्रग्गिसोहे य / पुण्गो जलकते वि य अमिय-विलंबे य घोसे य // 6 // बलि-भूयाणंदे / वेणुदालि-हरिस्सहे अग्गिमाणव-वसि? / जलप्पभे अमियवाहणे पहंजणे महाघोसे // 7 // घउमट्टी सट्ठी खलु छच्च सहस्साप्रो असुरवज्जाणं / / मामाणिवागो एए चउगुणा पायरक्खा र // 5 // काले य महाकाले, सुरूव-पडिरूवं-पुण्णभद्दे य / अमरवइमाणिभ भीमें य तहा महाभीमे // 1 // किण्णर-किंपुरिसे खलु सप्पुरिसे चैव तह महापुरिसे / प्रइकाय-महाकाय, गीयरई व गीयजसे // 2 // —प्रज्ञापना, क. प्रा. पृ. 108, 91 तथा 112 2. यहाँ जाव शब्द से "ताय तीसाए से अट्टाह अगमहिसोगं सपरिवाराणं चउग्हं लोकपालाणं, तिहं परिसाणं, सत्तहं अणियाणं, सत्ताह अणियाहिवईगं" तक का पाठ जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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