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________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सक्कस्स देविदस्स देवरणो इमेयारूवे विसए विसयमेत्ते णं वुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुविसु धा विकुव्वति वा विकुन्विस्सति वा। [15 प्र.] 'भगवन् !' यों संबोधन करके द्वितीय गणधर भगवान् गौतमगोत्रीय अग्निभूति अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा (पूछा-) 'भगवन् ! यदि ज्योति केन्द्र ज्योतिष्कराज ऐसी महाऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है, तो हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक कितनी महाऋद्धि वाला है और कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [15 उ.] गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र महान् ऋद्धिवाला है यावत् महाप्रभावशाली है। वह वहाँ बत्तीस लाख विमानावासों पर तथा चौरासी हजार सामानिक देवों पर यावत् (त्रास्त्रिशक देवों एवं लोकपालों पर) तीन लाख छत्तीस हजार प्रात्मरक्षक देवों पर एवं दूसरे बहुत-से देवों पर आधिपत्य स्वामित्व करता हुआ विचरण करता है / (अर्थात-) शकेन्द्र ऐसी बड़ी ऋद्धि वाला है, यावत इतनी विक्रिया करने में समर्थ है। उसकी वैक्रिय शक्ति के विषय में चमरेन्द्र की तरह सब कथन करना चाहिये; विशेष यह है कि वह अपने वैक्रियकृत रूपों से) दो सम्पूर्ण जम्बूद्वीप जितने स्थल को भरने में समर्थ है; और शेष सब पूर्ववत् है / (अर्थात्-तिरछे असंख्यात द्वीप-समुद्रों जितने स्थल को भरने में समर्थ है।) हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक की यह इस रूप की वैक्रियशक्ति तो केवल शक्तिरूप (क्रियारहित शक्ति) है। किन्तु सम्प्राप्ति (साक्षात् क्रिया) द्वारा उसने ऐसी विक्रिया की नहीं, करता नहीं और न भविष्य में करेगा। 16. जइ गं भंते ! सबके देविदे देवराया एमहिड्ढोए जाव एवतियं च णं पभ विकुवित्तए एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी तीसए णाम अणगारे पतिभद्दए जाब विणीए छठंछठेणं प्रणिविखतेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई अट्ठ संबच्छराई सामण्णपरियागं पाणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं भूसेत्ता सढि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता पालोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सपंसि विमाणंसि उबवायसभाए देवसणिज्जसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेतीए प्रोगाहणाए सक्कस्स देविदस्त देवरण्णो सामाणियदेवत्ताए उववन्ने। तए णं तीसए देवे बहुगोववन्नमेत्ते समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ, तं जहा-आहार. पज्जत्तीए सरोर० इंदिय० प्राणापाणुपज्जतीए भासा-मणपज्जत्तीए / तए णं तं तीसयं देवं पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं मयं समाणं सामाणियपरिसोववन्नया देवा करयलपरिम्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मथए अंजलि कटु जएणं विजएणं बद्धाविति, 2 एवं वदासि-अहो ! णं देवाणुप्पिएहिं दिवा देविड्ढी, दिव्या देवजुती, दिवे देवाणुभावे लद्ध पत्ते अभिसमन्नागते, जारिसिया णं देवाणु पिएहिं दिव्या देविड्ढो दिव्वा देवज्जुती दिव्वे देवाणुभावे लद्ध पत्ते अभिसमन्त्रागते तारिसिया णं सक्केण देविदेणं देवरण्णा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागता, जारिसिया णं सक्केणं देविदेणं देवरण्णा दिवा देविड्ढी जाव अभिसमन्नागता तारिसिया णं देवाणुप्पिएहि दिन्या देविड्ढी जाव अभिसमन्ना से णं भाते ! तीसए देवे केमहिड्ढोए जाव केवतियं च णं पभ विकुवित्तए ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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