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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [269 गोयमा! महिड्ढीए जाव महाणु मागे, से णं तत्थ सयस विमाणस्स, चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं, चउण्हं अग्गमहिसोणं सपरिवाराणं, तिष्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवतीणं, सोलसण्हं प्रायरक्ख देवसाहस्सोणं अन्नेसि च बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य जाव विहरति / एमहिड्ढोए जाव एवइयं च णं पभ विकुवित्तए-से जहाणामए जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा जहेव सक्कस्स तहेव जाव एस णं गोयमा ! तोसयस्स देवस्स अयमेयारूवे बिसए विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विउविसु वा 3 / [16 प्र.] भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज शक ऐसी महान् ऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकर्वणा करने से समर्थ है, तो आप देवानप्रिय का शिष्य 'तिष्यक' नामक अनगार, जो प्रकृति से भद्र, यावत् विनीत था निरन्तर छठ-छठ (बेले-बेले) की तपस्या से अपनी आत्मा को भावित करता हुना, पूरे पाठ वर्ष तक श्रामण्यपर्याय (साधु-दीक्षा) का पालन करके, एक मास की संल्लेखना से अपनी प्रात्मा को संयुक्त (जुष्ट-सेवित) करके, तथा साठ भक्त (टंक) अनशन का छेदन (पालन) कर, आलोचना और प्रतिक्रमण करके, मृत्यु (काल) के अवसर पर मृत्यु प्राप्त करके सौधर्मदेवलोक में गया है। वह वहाँ अपने विमान में, उपपातसभा में, देव-शयनीय (देवों की शय्या) में देवदूष्य (देवों के वस्त्र) से ढंके हुए अंगुल के असंख्यात भाग जितनी अवगाहना में देवेन्द्र देवराज शक्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ है। फिर तत्काल उत्पन्न हुआ वह तिष्यक देव पांच प्रकार की पर्याप्तियों (अर्थात्-पाहार पर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, पानापान-पर्याप्ति (श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति) और भाषामनःपर्याप्ति से पर्याप्तिभाव को प्राप्त हुआ / तदनन्तर जब वह तिष्यकदेव पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त हो चुका, तब सामानिक परिषद् के देवों ने दोनों हाथों को जोड़कर एवं दसों अंगुलियों के दसों नखों को इकट्ठ करके मस्तक पर अंजलि करके जय-विजय-शब्दों से बधाई दी। इसके बाद वे इस प्रकार बोले-अहो ! अाप देवानुप्रिय ने यह दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देव-धु ति (कान्ति) उपलब्ध की है, प्राप्त की है, और दिव्य देव-प्रभाव उपलब्ध किया है, सम्मुख किया है / जैसी दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देव-कान्ति और दिव्य देवप्रभाव आप देवानुप्रिय ने उपलब्ध, प्राप्त और अभिमुख किया है, वैसी ही दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव देवेन्द्र देवराज शक ने उपलब्ध, प्राप्त और अभिमुख किया है; जैसी दिव्य ऋद्धि दिव्य देवकान्ति और दिव्यप्रभाव देवेन्द्र देवराज शक ने लब्ध, प्राप्त एवं अभिमुख किया है, वैसी ही दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव आप देवानुप्रिय ने उपलब्ध, प्राप्त और अभिमुख किया है / (अतः अग्निभूति अनगार भगवान् से पूछते हैं-) भगवन् ! वह तिष्यक देव कितनी महा ऋद्धि वाला है, यावत् कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ? [16 उ.] गौतम ! वह तिष्यक देव महाऋद्धि वाला है, यावत् महाप्रभाव वाला है। वह वहाँ अपने बिमान पर, चार हजार सामानिक देवों पर, सपरिवार चार अनमहिषियों पर, तीन परिषदों (सभाओं) पर, सात सैन्यों पर, सात सेनाधिपतियों पर एवं सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों पर, तथा अन्य बहत-से वैमानिक देवों और देवियों पर आधिपत्य, स्वामित्व एवं नेतृत्व करता हुआ विचरण करता है / यह तिष्यकदेव ऐसी महाऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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