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________________ 270] व्याख्याप्रजप्तिसूत्र है, जैसे कि कोई युवती (भय अथवा भीड़ के समय) युवा पुरुष का हाथ दृढ़ता से पकड़ कर चलती है, अथवा गाड़ी के पहिये की धुरी पारों से गाढ़ संलग्न (प्रायुक्त) होती है, इन्हीं दो दृष्टान्तों के अनुसार वह शक्रेन्द्र जितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है। हे गौतम ! यह जो तिष्यकदेव को इस प्रकार की विकुर्वणाशक्ति कही है. वह उसका सिर्फ विषय है, विषयमात्र (क्रियारहित वैक्रियशक्ति) है, किन्तु सम्प्राप्ति (क्रिया) द्वारा कभी उसने इतनी विकुर्वणा की नहीं, करता भी नहीं और भविष्य में करेगा भी नहीं। 17. जति णं भंते ! तीसए देवे एमहिड्ढोए जाव ऐवइयं च णं पम विकुवित्तए, सक्कस्स णं भंते ! देविदस्स देवरष्णो प्रवसेसा सामाणिया देवा केमहिड्ढीया ? तहेव सव्वं जाव एस णं गोयमा ! सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो एगमेगस्स सामाणियरस देवस्स इमेयारूवे विसए विसयमेत्ते वुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुविसु वा विकुव्वंति वा विकुब्धिस्संति वा। [17 प्र. भगवन् ! यदि तिष्यक देव इतनी महाऋद्धि वाला है यावत् इतनी विकुर्वणा करने की शक्ति रखता है, तो हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र के दूसरे सब सामानिक देब कितनी महाऋद्धि वाले हैं यावत् उनकी विकुर्वणाशक्ति कितनी है ? 17 उ.] हे गौतम ! (जिस प्रकार तिष्यकदेव की ऋद्धि एवं विकुर्वणाशक्ति प्रादि के विषय में कहा), उसी प्रकार शकेन्द्र के समस्त सामानिक देवों की ऋद्धि एवं विकुर्वणा शक्ति प्रादि के विषय में जानना चाहिए, किन्तु हे गौतम ! यह विकूर्वणाशक्ति देवेन्द्र देवराज शक्र के प्रत्येक सामानिक देव का विषय है, विषयमात्र है, सम्प्राप्ति द्वारा उन्होंने कभी इतनी विकुर्वणा की नहीं, करते नहीं, और भविष्य में करेंगे भी नहीं / 18. तायत्तीसय-लोगपाल-प्रग्गमाहिसीणं जहेव चमरस्स। नवरं दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अन्नं तं चेव / सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति दोच्चे गोयमे जाव विहरति / [18] शकेन्द्र के त्रायस्त्रिशक, लोकपाल और अग्रमहिषियों (की ऋद्धि, विकुर्वणा शक्ति आदि) के विषय में चमरेन्द्र (के त्रास्त्रिशक प्रादि को ऋद्धि आदि) की तरह कहना चाहिए / किन्तु इतना विशेष है कि वे अपने वैक्रियकृत रूपों से दो सम्पूर्ण जम्बूद्वीपों को भरने में समर्थ हैं। शेष समग्न वर्णन चमरेन्द्र की तरह कहना चाहिए। हे 'भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कहकर द्वितीय गौतम अग्निभूत अनगार यावत् विचरण करते हैं / विवेचन-शक्रन्द्र तथा तिष्यक देव एवं शक के सामानिक देवों आदि की ऋद्धि, विकुर्वना शक्ति प्रादि का निरूपण—प्रस्तुत चार सूत्रों (15 से 18 सू. तक) में सौधर्मदेवलोक के इन्द्र देवराज शक्रेन्द्र तथा सामानिक रूप में उत्पन्न तिष्यकदेव एवं शक्रेन्द्र के सामानिक आदि देववर्ग को ऋद्धि आदि और विकुर्वणाशक्ति के विषय में निरूपण किया गया है। शकेन्द्र का परिचय-देवेन्द्र देवराज शक्र प्रथम सौधर्म देवलोक के वैमानिक देवों का इन्द्र है। प्रज्ञापनासूत्र में इसके अन्य विशेषण भी मिलते हैं, जैसे-वज्रपाणि, पुरन्दर, शतक्रतु, सहस्राक्ष (पांच सो मत्री होने से), मघवा, पाकशासन, दक्षिणार्धलोकाधिपति, बत्तीस लाख विमानों का अधिपति, ऐरावतवाहन, सुरेन्द्र, आदि / शकेन्द्र के आवासस्थान, विमान, विमानों का आकारवर्णगन्धादि, उसको प्राप्त शरीर, श्वासोच्छ्वास, आहार, लेश्या, ज्ञान अज्ञान, दर्शन-कुदर्शन, उपयोग, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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