________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [271 वेदना, कषाय, समुद्घात, सुख, समृद्धि, वैक्रियशक्ति आदि का समस्त वर्णन प्रज्ञापनासूत्र में किया तिष्यक अनगार को सामानिक देवरूप में उत्पत्ति-प्रक्रिया-शकेन्द्र की ऋद्धि आदि के विषय में प्रश्नोत्तर के पश्चात् शकेन्द्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुए अपने पूर्वपरिचित भगवत् शिष्य तिष्यक अनगार के समग्र चरितानुवादपूर्वक प्रश्न करते हैं-द्वितीय गौतम श्री अग्निभूलि अनगार ! तिष्यक अनगार का मनुष्यलोक से देहावसान होने पर देवलोक में देवशरीर की रचना की प्रक्रिया का वर्णन यहाँ शास्त्रकार करते हैं / कर्मबद्ध प्रात्मा (जीव) के तथारूप पुद्गलों से आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि रूप शरीर बनता है / पर्याप्तियाँ छह होते हुए भी यहाँ पाँच पर्याप्तियों का उल्लेख बहुश्रुत पुरुषों के द्वारा भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति को एक मान लेने से किया गया है।' 'लद्ध पत्ते अभिसमस्नागते' का विशेषार्थ--लद्ध-दुसरे (पूर्व) जन्म में इसका उपार्जन किया था, इस कारण लब्ध (मिला, लाभ प्राप्त) हुआ; पत्ते- देवभव की अपेक्षा से प्राप्त हुआ है, इसलिए 'पत्त' शब्द प्रयुक्त है; अभिसमन्नागते = प्राप्त किये हुए भोगादि साधनों के उपभोग (अनुभव) की अपेक्षा से अभिमुख लाया हुआ है / ___'जहेव चमरस्स' का प्राशय-इस पंक्ति से यह सूचित किया गया है कि लोकपाल और अग्रमहिषियों की विकुर्वणाशक्ति 'तिरछे संख्यात द्वीप-समुद्रों जितने स्थल को भरने तक की' कहनी चाहिए। ____ कठिन शब्दों के अर्थ-अणिक्खित्तेणं-निरन्तर (अनिक्षिप्त)। भूसित्ता सेवन करके / जारिसिया= जैसी, तारिसिया = वैसो 4 ईशानेन्द्र, कुरुदत्तपुत्रदेव तथा सनत्कुमारेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक के इन्द्रों एवं उनके सामानिकादि देववर्ग की ऋद्धि-विकुर्वरणाशक्ति प्रादि का प्ररूपरण 16. 'मते !' ति भगवं तच्चे गोयमे वाउभूती अणगारे भगवं जाव एवं वदासी-जति गं भंते ! सक्के देविबे दवराया एमहिड्ढीए जाव एवइयं च णं पभू विउवित्तए, ईसाणे णं माते ! देविदे देवराया कमहिढीए? एवं तहेव, नवरं साहिए दो केवलकप्पे जंबुद्दीव दोवे, अवसेसं तहेव / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र (उ. 4 क. पा.. पृ. १२०-१)-"सक्के इत्थ देविदे देवराया परिवसइ, वज्जपाणी पुरंदरे सयक्कड सहस्सक्खे मघवं पागसासणे दाहिण (इट) लोगाहिवई बत्तीस विमाणावाससयसहस्साहिवई एरावणवाहणे सुरिदे "अाहेवच्चं पोरेवच्चं कुब्वेमाणे जाब विहरइ / " / (ख) जीवाभिगमसूत्र क. पा. पृ. 926 2. (क) भगवती सुत्र अ. वत्ति पत्रांक 159 (ख) भगवतीसूत्र टीका-गुजराती अनुवाद (पं. बेचरदासजी), खण्ड 2, पृ. 19 3. भगवती सूत्र अ. वृत्ति पत्रांक 159 4. भगवतो सूत्र हिन्दी विवेचन युक्त (पं. घेवरचन्द जी), भाग 2, पृ. 557 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org