________________ 272] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [16 प्र.] 'भगवन् !' यों संबोधन कर तृतीय गौतम भगवान् वायुभूति अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार करके यावत् इस प्रकार कहा-(पूछा-) भगवन् ! यदि दवेन्द्र देवराज शक इतनी महाऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है, तो हे भगवन् ! देवेन्द्र देव राज ईशान कितनी महाऋद्धि वाला है, यावत् कितनी विकुर्वणा करने की शक्ति वाला है ?' |19 उ०] (गौतम ! जैसा शक्रेन्द्र के विषय में कहा था,) वैसा ही सारा वर्णन ईशानेन्द्र के विषय में जानना चाहिए / विशेषता यह है कि वह (अपने वैक्रियकृत रूपों से) सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीप से कुछ अधिक स्थल को भर देता है / शेष सारा वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। 20. जति णं भंते / ईसाणे देविवे देवराया एमहिड्ढीए जाव एबतियं च णं पभ विउवित्तए, एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुरुदत्तपुत्ते नाम पगतिभदए जाव विणीए अट्टमं प्रमेण अणिविखतेणं पारणए आयंबिलपरिग्महिएणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिम्भिय 2 सूराभिमुहे पायावणभूमीए प्रातावेमाणे बहुपडिपुणे छम्मासे सामण्णपरियागं पाउणित्ता अद्धमासियाए सलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता तोसं भत्ताई अणसणाए छेदित्ता पालोइयपडिक्कते समाहिपत कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कापे सयंसि विमाणंसि जा चेव तीसए वतन्वया स च्चेव अपरिसेसा कुरुदत्तपुत्ते वि / नवरं सातिरेगे दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, प्रवसेसं तं चेव / [20 प्र.] भगवन् ! यदि देवेन्द्र देवराज ईशानेन्द्र इतनी बड़ी ऋद्धि से युक्त है, यावत् वह इतनी विकुर्वणाशक्ति रखता है, तो प्रकृति से भद्र यावत विनीत, तथा निरन्तर अट्टम (तेले-तेले) की तपस्या और पारणे में प्रायम्बिल, ऐसी कठोर तपश्चर्या से प्रात्मा को भावित करता हुआ, दोनों हाथ ऊँचे रखकर सूर्य की ओर मुख करके प्रातापना-भूमि में प्रातापना लेने वाला (सख्त धूप को सहने वाला) आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी (शिष्य) कुरुदत्तपुत्र अतगार, पूरे छह महीने तक श्रामण्य. पर्याय का पालन करके, अर्द्धमासिक (15 दिन को) संलेखना से अपनी आत्मा को संसेवित (संयुक्त) करके, तीस भक्त (30 टंक) अनशन (संथारे) का छेदन (पालन) करके, आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके समाधि प्राप्त करके (समभावसमाधिपूर्वक) काल (मरण) का अवसर आने पर काल करके, ईशानकल्प में, अपने विमान में, ईशानेन्द्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हा है, इत्यादि जो वक्तव्यता, तिष्यक देव के सम्बन्ध में पहले कही है. वही समग्र वक्तव्यता कुरुदत्तपत्र के विषय में भी कहनी चाहिए। (अतः प्रश्न यह है कि वह सामानिक देवरूप में उत्पन्न कुरुदत्तपुत्र देव कितनी महाऋद्धि वाला है, यावत् कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ?) [20 उ.] (हे गौतम ! इस सम्बन्ध में सब वक्तव्य पूर्ववत् जानना चाहिए / ) विशेषता यह है कि कुरुदत्तपुत्रदेव की (अपने वैक्रियकृत रूपों से) सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक स्थल को भरने को विकुर्वणाशक्ति है / शेष समस्त वर्णन उसी तरह ही समझना चाहिए / 21. एवं सामाणिय-तायत्तीस-लोगपाल-अम्गमहिसोणं जाव एस णं गोयमा ! ईसाणस्स देविदस्स देवरण्णो एवं एगमेगाए अग्गमहिसीए देवीए अयमेयारूवे विसए विसयमेत्ते बुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुब्धिसु वा विकुव्वंति वा विकुग्विस्संति वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org