________________ 620 व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इन आठों के प्रत्येक समूह के दो-दो इन्द्रों के नाम-(१) पिशाच के दो इन्द्र- काल और महाकाल, (2) यक्ष के दो इन्द्र-पूर्णभद्र और माणिभद्र, (3) भूत के दो इन्द्र-सुरूप और प्रतिरूप; (4) राक्षस के दो इन्द्र-भीम और महाभीम, (5) किन्नर के दो इन्द्र–किन्नर और किम्पुरुष, (6) किम्पुरुष के दो इन्द्र--सत्पुरुष और महापुरुष, (7) महोरग के दो इन्द्र---अतिकाय और महाकाय तथा (8) गान्धर्व के दो इन्द्र --गीतरति और गीतयश / ' इनके प्रत्येक के चार-चार अग्रमहिषियाँ हैं और प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार की संख्या एक-एक हजार है / अर्थात्-प्रत्येक इन्द्र के चार-चार हजार देवी-वर्ग है / इन इन्द्रों को प्रत्येक की राजधानी और सिंहासन का नाम अपने-अपने नाम के अनुरूप होता है। ये सभी इन्द्र अपनोअपनी सुधर्मासभा में अपने देवीपरिवार के साथ मैथुननिमित्तक भोग नहीं भोग सकते / / चन्द्र-सूर्य-ग्रहों के देवीपरिवार आदि का निरूपण 27. चंदस्स णं भंते ! जोतिसिदस्स जोतिसरणो० पुच्छा / अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पत्नत्ताओ, तं जहा- चंदप्पभा दोसिणाभा अच्चिमाली पभंकरा / एवं जहा जीवाभिगमे जोतिसियउद्देसए तहेव / [27 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [27 उ.] आर्यो ! ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र की चार अग्रमहिषियाँ हैं। वे इस प्रकार हैं(१) चन्द्रप्रभा, (2) ज्योत्स्नाभा, (3) अचिमाली एवं (4) प्रभंकरा / शेष समस्त वर्णन जीवाभिगमसूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति के द्वितीय उद्देशक में कहे अनुसार जानना चाहिए। 28. सूरस्स वि सूरप्पभा प्रायवाभा अच्चिमाली पभंकरा। सेसं तं चेव जाव नो चेवणं मेहुणवत्तियं / [28] इसी प्रकार सूर्य के विषय में भी जानना चाहिए। सूर्येन्द्र की चार अग्रमहिषिया ये हैं--सूर्यप्रभा, पातपाभा, अचिमाली और प्रभंकरा / शेष सब वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए; यावत् वे अपनी राजधानी की सुधर्मासभा में सिंहासन पर बैठ कर अपने देवीपरिवार के साथ मैथुननिमित्तक भोग भोगने में समर्थ नहीं हैं। 29. इंगालस्स णं भंते ! महग्गहस्स कति अग्ग० पुच्छा। अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-विजया वेजयंती जयंती अपराजिया। तत्थ णं एगमेगाए देवीए०, सेसं जहा चंदस्स / नवरं इंगालवडेंसए विमाणे इंगालगंसि सीहासणंसि / सेसं तं चेव / 26 प्र.] भगवन् ! अंगार (मंगल) नामक महाग्रह की कितनी अग्रहिषियाँ हैं ? [26 उ.] पार्यो ! (अंगार-महाग्रह की) चार अग्रहिषियाँ हैं / वे इस प्रकार --(1) विजया, (2) वैजयन्ती, (3) जयन्ती और (4) अपराजिता / इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार का वर्णन चन्द्रमा के देवी-परिवार के समान जानना चाहिए / परन्तु इतना विशेष है कि इसके विमान 1. वियाहपष्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 501-502 2. वही, पृ. 502 3. देखिये-जीवाभिगमसूत्र प्रतिपत्ति 3, उ. 2, सु. 202-4, पत्र 375-85 (पागमोदय.) / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org