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________________ दशम शतक : उद्देशक-५] [619 [24-1 उ.] पार्यो ! (सत्पुरुषेन्द्र की) चार अग्रमहिषयाँ हैं / यथा-१. रोहिणी, 2, नवमिका, 3. ही और 4. पुष्पवती / इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार का वर्णन पूर्वोक्तरूप से जानना चाहिए। [2] एवं महापुरिसस्स वि। [24-2] इसी प्रकार महापुरुषेन्द्र के विषय में भी समझ लेना चाहिए। 25. [1] अतिकायस्स णं भंते ! 0 पुच्छा / अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीनो पन्नत्ताओ, तं जहा भयगा भयगवती महाकच्छा फूडा। तत्थ णं, सेसं तं चेव / [25-1 प्र. भगवन् ! अतिकायेन्द्र की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [25.1 उ.] पार्यो ! (अतिकायेन्द्र की) चार अग्रमहिषियाँ हैं। यथा-१. भुजगा, 2. भुजगवती, 3. महाकच्छा और 4. स्फुटा। इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार का वर्णन पूर्वोक्त रूप से जानना चाहिए। [2] एवं महाकायस्स वि। [25-2] इसी प्रकार महाकायेन्द्र के विषय में भी समझ लेना चाहिए। 26. [1] गीतरतिस्स णं भंते ! 0 पुच्छा / अज्जो ! चत्तारि अगम हिसीओ पन्नत्ताओ, तं जहा-सुघोसा विमला सुस्सरा सरस्सती / तत्थ णं०, सेसं तं चेव / [26-1 प्र.] भगवन् ! गीतरतीन्द्र की कितनी अग्रमहिषियाँ हैं ? [26-1 उ.] आर्यो ! (गीतरतीन्द्र की) चार अग्रमहिषियाँ हैं / वे इस प्रकार--१. सुघोषा, 2. विमला, 3. सुस्वरा और 4. सरस्वती। इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी के देवी-परिवार का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। [2] एवं गीयजसस्स वि / सवेसि एतेसि जहा कालस्स, नवरं सरिसनामियाओ रायहाणीओ सोहासणाणि य / सेसं तं चेव / / [26-2] इसी प्रकार गीतयश-इन्द्र के विषय में भी जान लेना चाहिए। इन सभी इन्द्रों का शेष सम्पूर्ण वर्णन कालेन्द्र के समान जानना चाहिए। राजधानियों और सिंहासनों का नाम इन्द्रों के नाम के समान है। शेष सभी वर्णन पूर्ववत् (एक सरीखा) है / विवेचन- व्यन्तरदेवों को विविध जाति के इन्द्रों का देवीपरिवार आदि वर्णन–प्रस्तुत 8 सूत्रों (सू. 16 से 26 तक) में पाठ प्रकार के व्यन्तर देवों के इन्द्रों की अग्रहिषियों तथा उनकी देवियों की संख्या एवं अपनी-अपनी सुधर्मा सभा में उनकी अपने देवीपरिवार के साथ मैथुननिमित्तक भोग भोगने की असमर्थता का अतिदेश किया गया है।' व्यन्तरजातीय देवों के 8 प्रकार--(१) पिशाच, (2) भूत, (3) यक्ष, (4) राक्षस, (5) किन्नर, (6) किम्पुरुष, (7) महोरग, एवं (8) गन्धर्व / / 1. बियाहपण्णत्तिसुतं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 501-502 2 (क) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 4, (ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. 4, सू.१२ : व्यन्तरा: किन्नर-किम्पुरुष-महोरग-गान्धर्व-यक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचाः / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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