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________________ नवम शतक : उद्देशक-३२] [501 गंगेया ! संतरं पि नेरतिया उववज्जति, निरंतरं पि नेरतिया उववज्जति जाव संतरं पि थणियकुमारा उववज्जति, निरंतरं पि थणियकुमारा उववज्जति / नो संतरं पुढविक्काइया उववज्जंति, निरंतरं पुढविष्काइया उववज्जति; एवं जाव वणस्सइकाइया। सेसा जहा नेरइया जाव संतरं पि वेमाणिया उबवज्जति, निरंतरं पि वेमाणिया उववज्जति / संतरं पि नेरइया उव्वति, निरंतरं पि नेरइया उन्वटेंति; एवं जाव धणियकुमारा। नो संतरं पुढविवकाइया उन्वटेंति, निरंतर पुढविक्काइया उन्वति; एवं जाव वणस्सइकाइया। सेसा जहा नेरइया, नवरं जोइसिय-वेमाणिया चयंति अभिलावो, जाव संतरं पि वेमाणिया चयंति, निरंतरं पि वेमाणिया चयति / [48 प्र.! भगवन् ! नैरयिक सान्तर (अन्तरसहित) उत्पन्न होते हैं या निरन्तर (लगातार) उत्पन्न होते हैं ? असुरकुमार सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर ? यावत् वैमानिक देव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ? (इसी तरह) नैरयिक का उद्वर्तन सान्तर होता है अथवा निरन्तर ? यावत् वाणव्यन्तर देवों का उद्वर्तन सान्तर होता है या निरन्तर ? ज्योतिष्क देवों का सान्तर च्यवन होता है या निरन्तर ? वैमानिक देवों का सान्तर च्यवन होता है या निरन्तर? / * 48 उ.] हे गांगेय ! नैरयिक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी, यावत् स्तनितकुमार सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं / पृथ्वीकायिक जीव सान्तर उत्पन्न नहीं होते, परन्तु निरन्तर ही उत्पन्न होते हैं / इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीव सान्तर उत्पन्न नहीं होते, किन्तु निरन्तर उत्पन्न होते हैं / शेष सभी जीव नै रयिक जीवों के समान सान्तर भी उत्पन्न होते हैं, निरन्तर भी, यावत् वैमानिक देव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी। नैरयिक जीव सान्तर भी उद्वर्तन करते हैं, निरन्तर भी। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए / पृथ्वीकायिक जीव सान्तर नहीं उद्वर्तते, निरन्तर उद्वतित होते हैं। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों तक कहना चाहिए। शेष सभी जीवों का कथन नैरचिकों के समान जानना चाहिए / इतना विशेष है कि ज्योतिष्क देव और वैमानिक देव च्यवते हैं, ऐसा पाठ (अभिलाप) कहना चाहिए यावत् वैमानिक देव सान्तर भी च्यवते हैं और निरन्तर भी। विवेचन--शंका-समाधान यहाँ शंका उपस्थित होती है कि नैरयिक आदि की उत्पत्ति के सात्तर-निरन्तर आदि तथा उद्वर्तनादि का कथन प्रवेशनक-प्रकरण से पूर्व किया ही था, फिर यहाँ पुनः सान्तर-निरन्तर अादि का कथन क्यों किया गया है ? इसका समाधान यह है कि यहाँ पुनः सान्तर आदि का निरूपण नारकादि सभी जीवों के भेदों का सामुदायिक रूप से सामूहिक उत्पाद एवं उद्वर्तन की दृष्टि से किया गया है।' प्रकारान्तर से चौबीस दण्डकों में उत्पाद-उद्वर्तना-प्ररूपणा 49. सओ भंते ! नेरतिया उववज्जति ? असओ भंते ! नेरइया उववज्जंति ? गंगेया ! सओ नेरइया उवधज्जति, नो असओ नेरइया उववज्जंति / एवं जाव बेमाणिया। - -- - - . .. . - -.... 1. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 455 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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