________________ 500] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [46 प्र.1 भगवन् ! भवनवासीदेव-प्रवेशनक, वाणव्यन्त रदेव-प्रवेशनक, ज्योतिष्कदेवप्रवेशनक और वैमानिकदेव-प्रवेशनक, इन चारों प्रवेशनकों में से कौन प्रवेशनक किस प्रवेशनक से अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? [46 उ.] गांगेय ! सबसे थोड़े वैमानिकदेव-प्रवेशनक हैं, उनसे भवनवासीदेव-प्रवेशनक असंख्यातगुणे हैं, उनसे वाणव्यन्तरदेव-प्रवेशनक असंख्यातगुणे हैं और उनसे ज्योतिष्कदेव-प्रवेशनक संख्यातगुण हैं। विवेचन-चारों देव-प्रवेशनकों का अल्पबहुत्व-वैमानिकदेव सबसे कम होते हैं, और उनमें जाने वाले (प्रवेशनक) जीव भी सबसे थोड़े होते हैं, इसीलिए अल्पबत्व में पारस्परिक तुलना की दृष्टि से कहा गया है कि वैमानिकदेव-प्रवेशनक सबसे अल्प है।' नारक-तिर्यञ्च-मनुष्य-देव प्रवेशनकों का अल्पबहुत्व--- 47. एयस्स णं भंते ! नेरइयपवेसणगस्स तिरिक्ख० मणुस्स० देवपवेसणगस्स य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिए वा ? गंग या! सव्वत्थोवे मणुस्सपवेसणए, नेरइयपवेसणए असंखेज्जगुणे, देवपवेसणए असंखेज्जगुणे, तिरिक्खजोणियपवेसणए असंखेज्जगुणे / [47 प्र.] भगवन् ! इन नैरयिक-प्रवेशनक, तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक, मनुष्य-प्रबेशनक और देव-प्रवेशनक, इन चारों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? [47 उ.] गांगेय ! सबसे अल्प मनुष्य-प्रवेशनक है, उससे नैरयिक-प्रवेशनक असंख्यातगुणा है, और उससे देव-प्रवेशनक असंख्यातगुणा है, और उससे तिर्यञ्चयोनिक-प्रवेशनक असंख्यातगुणा विवेचन-चारों गतियों के जीवों के प्रवेशनकों का अल्पबहुत्व--सबसे अल्प मनुष्य-प्रवेशनक हैं, क्योंकि मनुष्य सिर्फ मनुष्यक्षेत्र में ही हैं, जो कि बहुत ही अल्प है। उससे नैयिक-प्रवेशनक असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि नरक में जाने वाले जीव असंख्यातगुण हैं / इसी प्रकार देव-प्रवेशनक और तिर्यञ्चयोनिक-प्रबेशनक के विषय में समझना चाहिए / 2 / / चौबीस दण्डकों में सान्तर-निरन्तर उपपाद-उद्वर्तनप्ररूपणा-- 48. संतरं भंते ! नेरइया उववज्जंति ? निरंतर नेरइया उववज्जति ? संतरं असुरकुमारा उववज्जति ? निरंतरं असुरकुमारा जाव संतरं वेमाणिया उववज्जति ? निरंतरं वेमाणिया उववज्जति ? संतरं नेरइया उध्वटंति ? निरंतरं नेरतिया उव्वटंति ? जाव संतरं वाणमंतरा उच्चति ? निरंतरं वाणमंतरा उन्वट्टति ? संतरं जोइसिया चयंति ? निरंतरं जोइसिया चयंति ? संतरं वेमाणिया चयंति ? निरंतरं वेमाणिया चयंति ? .- .... -----..- . . . 1. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 453 2. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 453 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org