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________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१] [ 123 संयोजना दोषों से युक्त और रहित की व्याख्या की गई है / शेष दो 19 और 203 सूत्र में प्रमाणातिक्रान्त और संयमयात्रार्थ तथा संयमभारवहनार्थ के रूप में गतार्थ कर दिया है।' __ क्षेत्रातिकान्त का भावार्थ---यहाँ क्षेत्र का अर्थ सूर्यसम्बन्धी तापक्षेत्र अर्थात्-दिन है, इसका अतिक्रमण करना क्षेत्रातिक्रान्त है। ___ कुक्कुटी-प्रण्डप्रमाण का तात्पर्य-आहार का प्रमाण बताने के लिए 'कुक्कुटो-अण्डकप्रमाण' शब्द दिया दिया है / इसके दो अर्थ होते हैं—(१) कुक्कुटी के अंडे के जितने प्रमाण का एक कवल, तथा (2) जीवरूपी पक्षी के लिए प्राश्रयरूप होने से यह गंदी अशुचिप्राय काया 'कुकुटी' है, इस कुकुटी के उदरपूरक पर्याप्त आहार को कुकुटी-अण्डकप्रमाण कहते हैं / शस्त्रातीतादि को शब्दश: व्याख्या-शस्त्रातीत = अग्नि आदि शस्त्र से उत्तीर्ण, सत्यपरिणामित शस्त्रों से वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श अन्यरूप में परिणत किया हुआ, अर्थात्-अचित्त किया हआ। एसियस्स-एषणीय-गवेषणा आदि से गवेषित / वेसियस्स विशेष या विविध गवेषणा, ग्रहणेषणा एवं ग्रासैषणा से विशोधित अथवा वैषिक अर्थात् मुनिवेष-मात्र देखने से प्राप्त / सामवाणियरस = गहसमुदायों से उत्पादनादोष से रहित भिक्षाजीविता / नवकोटिविशुद्ध का अर्थ-(१) किसी जीव की हिंसा न करना, (2) न कराना, (3) न ही अनुमोदन करना, (4) स्वयं न पकाना, (5) दूसरों से न पकवाना, (6) पकानेवालों का अनुमोदन न करना, (7) स्वयं न खरीदना, (8) दूसरों से न खरीदवाना, और (9) खरीदनेवाले का अनुमोदन न करना / इन दोषों से रहित आहारादि नवकोटिविशुद्ध कहलाते हैं।' उद्गम, उत्पादना और एषणा के दोष-शास्त्र में प्राधाकर्म आदि 16 उद्गम के, धात्री, दूती आदि 16 उत्पादना के, एवं शंकित आदि 10 एषणा के दोष बताए हैं। उनमें से प्रथम वर्ग के दोष दाता से, द्वितीय वर्ग के साधु से और तृतीय वर्ग के दोनों से लगते हैं। / / सप्तक शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / (ख) भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. 3, पृ. 1098 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्रांक 292, 2. भगवती, अ. वृत्ति, पत्रांक 292 3. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 293 4. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक 294 (ख) भगवती. हिन्दी विवेचन पृ. 1103 (ख) पिण्डनियुक्ति, प्रवचनसारोद्धार आदि ग्रन्थ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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