________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-११] [ 97 पूर्वभव का रहस्य खोलकर पल्योपमादि के क्षय-उपचय की सिद्धि ___56. से णं तुम सुदंसणा! बंभलोए कप्पे दस सागरोवमाई दिब्वाइं भोगभोगाई भुजमाणे विहरित्ता तओ चेव देवलोगापो आउक्खएणं ठितिक्खएणं भवक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता इहेव वाणियग्गामे नगरे सेडिकुलसि पुमत्ताए पच्चायाए / तए णं तुमे सुदंसणा ! उम्मुक्कबालभावेणं विण्णयपरिणयमेत्तेणं जोवणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं केवलिपण्णत्ते धम्मे निसंते, से वि य धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइते, तं सुठ्ठ णं तुम सुदंसणा ! इदाणि पि करेसि / से तेण?णं सुदंसणा ! एवं वुच्चति 'अस्थि णं एतेसि पलिओवमसागरोवमाणं खए ति वा, प्रवचए ति वा / [56] हे सुदर्शन ! वही महाबल का जीव तुम (सुदर्शन) हो। तुम वहाँ ब्रह्मलोक कल्प में दस सागरोपम तक दिव्य भोगों को भोगते हुए रह करके, वहाँ दस सागरोपम की स्थिति पूर्ण करके, वहाँ के प्रायुष्य का, स्थिति का और भव का क्षय होने पर वहाँ से च्यव कर सीधे इस भरतक्षेत्र के वाणिज्यग्राम-नगर में, श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न हुए हो / तत्पश्चात् हे सुदर्शन ! बालभाव से मुक्त होकर तुम विज्ञ और परिणतवय वाले हुए, यौवन अवस्था प्राप्त होने पर तुमने तथारूप स्थविरों से केवलि-प्ररूपित धर्म सुना। वह धर्म तुम्हें इच्छित प्रतीच्छित (स्वीकृत) और रुचिकर हुआ। हे सुदर्शन ! इस समय भी तुम जो कर रहे हो, अच्छा कर रहे हो। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि इन पल्योपम और सागरोपम का क्षय और अपचय होता विवेचन-सागरोपम की स्थिति का क्षयापचय और पूर्वभव का रहस्योद्घाटन-प्रस्तुत सूत्र 56 में भगवान महावीर ने सुदर्शन के पूर्वभव की कथा का उपसंहार करते हुए बताया है कि महाबल का जीव ही तू सुदर्शन है, जो दस सागरोपम की स्थिति का क्षय तथा अपचय होने पर वाणिज्यग्राम में श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ है / अन्त में, सुदर्शन श्रमणोपासक के वर्तमांन धर्ममय जीवन की प्रशंसा की है / यह प्रस्तुत उद्देशक के सू० 16-2 का निगमन है। 60. तए णं तस्स सुदंसणस्स से ट्ठिस्स समणस्स भगवप्रो महावीरस्स अंतियं एयम सोच्चा निसम्म सुभेणं अज्ञवसाणेणं, सोहणेणं परिणामेणं, लेसाहि विसुज्झमाणीहि, तदावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णीपुष्यजातीसरणे समुप्पन्न, एतमट्ठ सम्म अभिसमेति / 60] तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर से यह बात (धर्मफल-सूचक) सुनकर और हृदय में धारण कर सुदर्शन श्रमणोपासक (श्रेष्ठो) को शुभ अध्यवसाय से, शुभ परिणाम से और विशुद्ध होती हुई लेश्याओं से तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से और ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए संज्ञीपूर्व जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे (भगवान् द्वारा कहे गए) इस अर्थ (अपने पूर्वभव की बात) को सम्यक् रूप से जानने लगा। 1. वियाहपण्णत्ति सुतं, (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 2 पृ. 552 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org