________________ 98] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 61. तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणेणं भयवया महावीरेणं संभारिययुवभवे दुगुणाणीयसढसंवेगे आणंदसुपुण्णनयणे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेति,. आ० क०२ वंदति नमसति, वं० 2 एवं बयासी-एवमेयं भंते ! जाब से जहेयं तुम्भे बदह त्ति कटु उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमति सेसं जहा उसभदत्तस्स (स०९ 30 33 सु०१६) जाव सब्वदुक्खप्पहीणे, नवरं चोद्दस पुन्बाई अहिज्जति, बहुपडिपुण्णाई दुवालस वासाइं सामण्णपरियागं पाउणति / सेसं तं चेव / सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्तिः / // एक्कारसमे सए एक्कारसमो उद्दे सो समत्तो॥ [61] (जातिस्मरणज्ञान होने पर) श्रमण भगवान् महावीर द्वारा पूर्वभव का स्मरण करा देने से सुदर्शन श्रेष्ठी के हृदय में दुगुनी श्रद्धा और संवेग उत्पन्न हुए। उसके नेत्र प्रानन्दाश्रुनों से परिपूर्ण हो गए। तत्पश्चात् वह श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा एवं वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोला-भगवन् ! यावत् पाप जैसा कहते हैं, वैसा ही है, सत्य है, यथार्थ है / इस प्रकार कह कर सुदर्शन सेठ उत्तरपूर्व दिशा में गया, इत्यादि अवशिष्ट सारा वर्णन (श.६, उ.३३, सू. 16 में वणित जानना चाहिए, यावत् सुदर्शन श्रेष्ठी ने प्रव्रज्या अंगीकार की। विशेष यह है कि चौदह पूर्वो का अध्ययन किया, पूरे बारह वर्ष तक श्रमणपर्याय का पालन किया; यावत् सर्व दुःखों से रहित हुए। शेष सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ; यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरण करते हैं। विवेचन–प्रस्तुत दो सूत्रों (60-61) में मुख्यतया दो घटनाओं का निरूपण किया गया है(१) अपने पूर्वभव की कथा सुन कर सुदर्शन श्रेष्ठी को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया, जिससे भगवान् द्वारा कथित पूर्वजन्म-वृत्तान्त को हूबहू स्पष्ट रूप से जानने लगा और (2) उसकी श्रद्धा और संवेग में द्विगुणित वृद्धि हुई / भगवान् को वन्दना नमस्कार करके प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। ऋषभदत्त की तरह भगवान से प्रव्रज्या ग्रहण की.१४ पर्यों का अध्ययन / तपश्चर्या की, पूरे बारह वर्ष तक श्रमणत्व का पालन किया, अन्तिम समय में संल्लेखना संथारा किया / सर्वकर्मों से मुक्त-सिद्ध-बुद्ध हुआ।' सण्णीपुध्वजातीसरणे-ऐसा ज्ञान जिससे संज्ञीरूप से किये हुए अपने निरन्तर संलग्न पूर्वभव जाने-देखे जा सकें। दुगुणाणीयसढसंधेगे-श्रद्धा और संवेग दुगुने हो गए। // ग्यारहवां शतकः ग्यारहवां उद्देशक समाप्त / 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 554 2. (क) संज्ञिरूपा या पूर्वा जातिस्तस्याः स्मरणं यत्तत्तथा / (ख) पूर्वकालापेक्षया द्विगुणावानीतो श्रद्धासंवेगौ यस्य स तथा। श्रद्धा-तत्त्वार्थश्रद्धानं सदनुष्ठानचिकीर्षा बा संवेगो-भवभयं मोक्षाभिलाषो वा / -भगवती. अ. वत्ति, पत्र. 549 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org