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________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 29. से केपट्टणं भंते ! एवं बुच्चइ 'नेर इयत्तावीचियमरणे, नेरइयखेत्ताबीचियमरणे ? गोयमा ! जं जं नेरइया नेरइयखेते वट्टमाणा जाई दवाई नेरइयाउयत्ताए एवं जहेव दवावीचियमरणे तहेव खेत्तावाचियमरणे वि। [29 प्र. भगवन् ! नैरयिक-क्षेत्रावीचिकमरण नैयिक-क्षेत्रावीचिकमरण क्यों कहा जाता है ? [26 उ.] गौतम ! नैरयिक क्षेत्र में रहे हुए (वर्तमान) जिन द्रव्यों को नारकायुष्यरूप में नैरयिकजीव ने स्पर्शरूप से ग्रहण किया है, यावत् उन द्रव्यों को (भोग कर) वे प्रतिसमय निरन्तर छोड़ते (मरते) रहते हैं, (इस कारण से हे गौतम ! नरयिक-क्षेत्रावी चिकमरण को नैरयिक-क्षेत्रावीचिक मरण कहा जाता है; ) इत्यादि सब कथन द्रव्यावी चिकम रण के समान क्षेत्रावीचिकमरण के विषय में भी करना चाहिए / 30. एवं जाव भावावीचियमरणे / [30] इसी प्रकार यावत् ( कालावीचिकमरण, भवावी चिकमरण), भावावीचिकमरण तक कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 24 से 30 तक) में प्रावीचिकमरण के प्रकार तथा उनके प्रत्येक के भेद एवं स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। प्रायोचिकमरण के भेद-प्रभेद-भावीचिकमरण के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव की अपेक्षा से पांच भेद किये हैं। फिर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इस प्रकार चार गतियों की अपेक्षा से प्रत्येक के चार-चार भेद किये हैं।' नैरयिक-कालावीचिकमरण नैरयिक नरयिककाल में रहते हुए जिन आयुष्यकों को स्पर्शादि करके भोगकर छोड़ते हैं, फिर नये कर्मदलिक उदय में प्राते हैं, उन्हें भोगकर छोड़ते जाते हैं, इस प्रकार का क्रम निरन्तर चलता रहता हो, उसे नैरयिक-कालावीचिकमरण कहते हैं। नरयिक-भवावीचिकमरण--इसी प्रकार नरयिक-भव में रहते हुए वे जिन आयुकर्मों का बन्धन प्रादि करके भोगते हैं और छोड़ते हैं, वह नैरयिक-भवावीचिकमरण कहलाता है / कठिन शब्दों के अर्थ--णेरइएदब्वे बद्रमाणा-नारकरूप (नारक जीव रूप) से वर्तमान (रहते हुए) / नेरइयाउयत्ताए-नैरयिक-आयुष्य रूप से / गहियाई-गहीत--स्पर्शरूप से ग्रहण किये। बद्धाई-बंधन रूप से बाँधे / पुट्टाई-प्रदेश-प्रक्षिप्त करके पुष्ट किये / पट्टवियाई-स्थितिरूप से स्थापित किये / निविद्वाई-जीवप्रदेशों में प्रविष्ट किये। अभिनिविद्वाइं--जीवप्रदेशों में अत्यन्त गाढ़रूप से निविष्ट किये / अभिसमण्णागयाइं उदयालिका में आ गए अर्थात उदयाभिमुख बने हुए / मरंति छोड़ते हैं, भोग कर मरते हैं / अगुसमयं-प्रतिसमय / निरंतर-बिना व्यवधान के / ' 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 625 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 625 का सारांश 3. भगवती. अ. वलि, पत्र 625 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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