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________________ वह तप की प्रक्रिया और स्थिति को समझाने के लिए किया गया है / तप का प्रारम्भ होता है बाह्य तप से और उसकी पूर्णता होती है आभ्यन्तर तप से / तप का एक छोर बाह्य है और दूसरा छोर आभ्यन्तर है / आभ्यन्तर तप के बिना बाह्य तप में पूर्णता नहीं पाती / बाह्य तप से जब साधक का अन्तर्मन और तन उत्तप्त हो जाता है तो अन्तर में रही हई मलीनता को नष्ट करने के लिये साधक प्रस्तुत होता है / और वह अन्त मखी बनकर आभ्यन्तर साधक में लीन हो जाता है। बाह्य तप के प्रकार निम्नानुसार हैं 1. अनशन-बाह्य तप में इसका प्रथम स्थान है। यह तप अधिक कठोर और दुर्घर्ष है / भूख पर विजय शन तप का मूल उद्देश्य है। अनशन तप में भूख को जीतना और मन को निग्रह करना आवश्यक है। अनशन से तन की ही नहीं मन की भी शुद्धि होती है। अनशन केवल देहदण्ड ही नहीं अपितु आध्यात्मिक गुणों की उपलब्धि का महान उद्देश्य भी उस में सन्निहित है ! भगवद्गीता'१० में भी लिखा है कि आहार का परित्याग करने से इन्द्रियों के विषय-विकार दूर हो जाते हैं और मन भी पवित्र हो जाता है। महषि ने मंत्रायणी आरण्यक में लिखा है कि अनशन से बड़ा कोई तप नहीं है / साधारण मानव के लिये यह तप बड़ा ही दुर्घर्ष है। उसे सहन और वहन करना कठिन ही नहीं कठिनतर है / 11. अनशन तप के भी दो प्रकार हैं। एक इत्वरिक और दूसरा यावत्कालिक / इत्वरिक तप में एक निश्चित समयावधि होती है। एक दिन से लगाकर छह मास तक का यह तप होता है। दुसरा प्रकार यावत्कालिक तप जीवन पर्यन्त के लिये किया जाता है / यावत्कालिक अनशन के पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान-ये दो भेद हैं। भक्तप्रत्याख्यान में प्राहार के परित्याग के साथ ही निरन्तर स्वाध्याय, ध्यान, प्रात्मचिन्तन में समय व्यतीत किया जाता है। पादपोगमन में टूटे हुए वृक्ष की टहनी की भांति अचंचल, चेष्टारहित एक ही स्थान पर जिस मुद्रा में प्रारम्भ में स्थिर हुआ, अन्तिम क्षण तक उसी मुद्रा में अवस्थित रहना होता है। यदि नेत्र खुले हैं तो बन्द नहीं करना / यदि बन्द हैं तो खोलना नहीं है / जिसका वज्र ऋषभनाराच संहनन हो वहीं पादपोपगमन संथारा कर सकता है / चौदह पूर्वो का जब विच्छेद होता है तभी पादयोपगमन अनशन का भी विच्छेद हो जाता है। पादपोपगमन के निरहारिम और अनिरहारिम ये दो प्रकार हैं। तप का दूसरा प्रकार ऊनोदरी है / ऊनोदरी का शब्दार्थ है-ऊन-कम एवं उदर-पेट अर्थात् भूख से कम खाना ऊनोदरी है। कहीं-कहीं पर ऊनोदरी को अवसौदर्य भी कहा गया है / इसे अल्प पाहार या परिमित आहार भी कह सकते हैं। आहार के समान कषाय, उपकरण आदि की भी ऊनोदरी की जाती है। यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि उपवास करना तो तप है क्योंकि उसमें पूर्ण रूप से आहार का त्याग होता है, पर ऊनोदरी तप में तो भोजन किया जाता है फिर इसे तप किस प्रकार कहा जाये ? समाधान है-भोजन का पूर्ण रूप से त्याग करना तो तप होता ही है पर भोजन के लिये प्रस्तुत होकर भूख से कम खाना, भोजन करते हुए रसना पर संयम करना, सुस्वाद भोजन को बीच में ही छोड़ देना भी अत्यन्त दुष्कर है। आत्मसंयम और दढ़ मनोबल के बिना यह तप सम्भव नहीं है। निराहार रहने की अपेक्षा पाहार करते हुए पेट को खाली रखना कठिन और कठिनतर है / अनशन तप स्वस्थ व्यक्ति कर सकता है पर ऊनोदरी तप रोगी और दुर्बल व्यक्ति भी कर सकता है। ऊनोदरी तप से अनेक -- - ---- ----- --... 110. विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। --भगवद्गीता, 2/59 111. मंत्रायणी आरण्यक, 10/62 112. पढमंमि प्र संघयणे क्तो सेलकुट्ट समाणो / तेसि पि अबच्छेग्रो च उद्दसपुवीण बुच्छए।। --उववाई सूत्र, तप अधिकार [ 44 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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