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________________ - बुला मालोचना वही व्यक्ति कर माता है जिसमें सरलता हो, किसी भी प्रकार का छिपाव न हो, जिसका जीवन खुली पुस्तक की तरह हो / व्यक्ति पाप करके भी यह सोचता है कि मैं पाप को स्वीकार करूंगा तो मेरी कीति, मेरा यश, मेरी प्रतिष्ठा धूमिल हो जायेगी। वह पाप करके भी पाप को छिपाना चाहता है। जिसे स्वास्थ्य की चिन्ता है, वह पहले से ही सावधान रहता है। यदि रोग हो गया है, उसके बाद यह सोचे कि मैं डॉक्टर के पास जाऊंगा और लोगों को यह पता चल जायेगा कि मैं रोगी हूँ। इस प्रकार विचार कर वह अपना रोग छिपाता है तो वह व्यक्ति स्वस्थ नहीं हो सकता। इसी प्रकार जीवन में पवित्रता तभी रहेगी जब दोष को प्रकट कर उसका यथोचित प्रायश्चित्त किया जाय / आलोचना करने से साधक माया, निदान और मिथ्यादर्शन रूप तीन पात्यों को अन्तर्मानस से निकाल दूर कर देता है / कांटा निकलने से हृदय में सुखानुभूति होती है, वैसे ही पाप को प्रकट करने से भी जीवन नि:शल्प बन जाता है। जो साधक पाप करके भी आलोचना नहीं करता है, उसकी सारी आध्यात्मिक क्रियाएं बेकार हो जाती हैं। कोई माधक यह सोचे कि मुझे तो सभी शास्त्रों का परिज्ञान है अत: मुझे किसी के पास जाकर पालोचना करने की क्या आवश्यकता है? पर यह सोचना ठीक नहीं है / जिस प्रकार निपुण वैद्य भी अपनी चिकित्सा दूसरों से करवाता है, दूसरे वैद्य के कथनानुसार कार्य करता है, वैसे ही आचार्य को भी यदि दोष लग जाता है तो दोष की विशुद्धि दूसरों की साक्षी से ही करनी चाहिये / इस प्रकार करने से हृदय की सरलता प्रकट होती है और दूसरों को भी सरल और विशुद्ध बनाया जा सकता है। पालोचना किसके पास करनी चाहिये ? इस प्रश्न का समाधान व्यवहारसूत्र में मिलता है। सर्वप्रथम पालोचना प्राचार्य और उपाध्याय के समक्ष करनी चाहिये / उनके अभाव में साम्भोगिक बहश्रत श्रमण के पास करनी चाहिये। उनके अभाव में समान रूप वाले बहुश्रुत साधु के पास। उनके अभाव में जिसने पूर्व में संयम पाला हो और जिसे प्रायश्चित्तविधि का ज्ञान हो उस पडिवाई (संयमच्युत) श्रावक के पास। उसका भी अभाव होने पर जिनभक्त यक्ष आदि के पास / इनमें से सभी का अभाव हो तो ग्राम या तगर के बाहर पूर्व-उत्तर दिशा में मंह कर विनीत मुद्रा में अपने अपराधों और दोषों का स्पष्ट उच्चारण करना चाहिये और अरिहन्त-सिद्ध की साक्षी से स्वतः ही शुद्ध हो जाना चाहिये / 106 तप : एक विश्लेषण तप भारतीय साधना का प्राणतत्त्व है। जैसे शरीर में ऊष्मा जीवन के अस्तित्व का द्योतक है वैसे ही साधना में तग उसके दिव्य अस्तित्व को अभिव्यक्त करता है / तप के बिना न निग्रह होता है, न अभिग्रह होता है। तप दमन नहीं, शमन है। तप केवल आहार का ही त्याग नहीं, वासना का भी त्याग है / तप अन्तर्मानस में पनपते हए विकारों को जला कर भस्म कर देता है और साथ ही अन्तर्मानस में रहे हुए सघन अन्धकार को भी नष्ट कर देता है। इसलिये तप ज्वाला भी है और ज्योति भी है / तप जीवन को सौम्य, सात्विक और सा तप की साधना से आध्यात्मिक परिपूर्णता प्राप्त होती है / तप ऐसा कल्पवृक्ष है जिसकी निर्मल छत्रछाया में साधना के अमृतफल प्राप्त होते हैं। तप से जीवन श्रोजस्वी, तेजस्वी और प्रभावशाली बनता है। तप के सम्बन्ध में भगवतीसूत्र शतक 25, उद्देशक 7 में निरूपण है। वहाँ पर तप के दो मुख्य प्रकार बताये हैं—१. बाह्य तप और 2. आभ्यन्तर तप / बाह्य तप के छह प्रकार बताये हैं और प्राभ्यन्तर तप के भी छह प्रकार हैं। जो तप बाहर दिखलाई दे, वह बाह्य तप है। बाह्य तप में देह या इन्द्रियों का निग्रह किया जाता है। बाह्य तप में बाहा द्रव्यों की अपेक्षा रहती है जबकि प्राभ्यन्तर तप में मन्तःकरण के व्यापारों की प्रधानता होती है। यह जो वर्गीकरण है 109. व्यवहारसुत्र, उद्देशकः 1, बोल 34 से 39 [ 43 } Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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