________________ | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ऐसा न यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से और गुण से। द्रव्य की अपेक्षा--पुद्गलास्तिकाय अनन्तद्रव्यरूप है: क्षेत्र की अपेक्षा-पदगलास्तिकाय लोक-प्रमाण है, काल की अपेक्षा-वह कभी नहीं था त नित्य है। भाव की अपेक्षा वह वर्ण वाला, गन्ध वाला. रस वाला और स्पर्श वाला है / गुण की अपेक्षा—वह ग्रहण गुण वाला है। विवेचन–प्रस्तिकाय : स्वरूप, प्रकार एवं विश्लेषण--प्रस्तुत 6 सूत्रों में अस्तिकाय के पांच भेद एवं उनमें से धर्मास्तिकाय आदि प्रत्येक के स्वरूप एवं प्रकार का निरूपण किया गया है / 'अस्तिकाय' का निर्वचन–'अस्ति' का अर्थ है--प्रदेश और 'काय' का अर्थ है--समूह / अतः अस्तिकाय का अर्थ हुआ----'प्रदेशों का समूह' अथवा 'अस्ति' शब्द त्रिकालसूचक निपात (अव्यय) है / इस दृष्टि से अस्तिकाय का अर्थ हुआ-जो प्रदेशों का समूह भूतकाल में था, वर्तमानकाल में है और भविष्यकाल में रहेगा। पांचों का यह क्रम क्यों?-धर्म शब्द मंगल सूचक होने से द्रव्यों में सर्वप्रथम धर्मास्तिकाय बताया है / धर्मास्तिकाय से विपरीत अधर्मास्तिकाय होने से उसे धर्मास्तिकाय के बाद रखा गया। इन दोनों के लिए आकाशास्तिकाय आधाररूप होने से इन दोनों के बाद उसे रखा गया। प्राकाश की तरह जीव भी अनन्त और अमूर्त होने से इन दोनों तत्त्वों में समानता की दृष्टि से प्राकाशास्तिकाय के बाद जीवास्तिकाय को रखा गया। पुद्गल द्रव्य जीव के उपयोग में आता है, इसलिए जीवास्तिकाय के बाद पुद्गलास्तिकाय कहा गया। पंचास्तिकाय का स्वरूप-विश्लेषण-धर्मास्तिकाय आदि चार द्रव्य वर्णादि रहित होने से अरूपी-अमूर्त हैं, किन्तु वे धर्म (स्वभाव) रहित नहीं हैं। धर्मास्तिकायादि द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत हैं, प्रदेशों की अपेक्षा अवस्थित हैं, धर्मास्तिकायादि प्रत्येक लोकद्रव्य (पंचास्तिकायरूप लोक के अंशरूप द्रव्य) हैं / गुण की अपेक्षा धर्मास्तिकाय गति-गुण वाला है, जैसे मछली आदि के गमन करने में पानी सहायक होता है, वैसे ही धर्मास्तिकाय गतिक्रिया में परिणत हुए जीवों और पुद्गलों को सहायता देता है। किन्तु स्वयं गतिस्वभाव से रहित है—सदा स्थिर ही रहता है, फिर भी वह गति में निमित्त होता है। अधर्मास्तिकाय स्थिति क्रिया में परिणत हुए जीवों और पुद्गलों को सहायता देता है, जैसे विधाम चाहने वाले थके हुए पथिक को छायादार वृक्ष सहायक होता है / अवगाहन गुण वाला आकाशास्तिकाय जीवादि द्रव्यों को अवकाश देता है, जैसे बेरों को रखने में कुण्डा प्राधारभूत होता है / जीवास्तिकाय उपयोगगुण (चैतन्य या चित्-शक्ति) वाला है / पुद्गलास्तिकाय ग्रहण-गुण वाला है; क्योंकि औदारिकादि अनेक पुद्गलों के साथ जीव का ग्रहण (परस्पर सम्बन्ध) होता है। अथवा पुद्गलों का परस्पर में ग्रह्ण-बन्ध होता है / ' धर्मास्तिकायादि के स्वरूप का निश्चय--- 7. [1] एगे भते ! धम्मत्यिकायपदेसे 'धम्मत्यिकाए' त्ति वत्तन्वं सिया? गोयमा ! णो इण8 सम? / क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को 'धर्मास्तिकाय' कहा जा सकता है ? 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 148 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org