________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१० ] [ 241 में भी कहना चाहिए ; किन्तु इतना अन्तर है कि अधर्मास्तिकाय गुण की अपेक्षा स्थिति गुण वाला (जीवों-पुद्गलों की स्थिति में सहायक) है। 4. प्रागासस्थिकाए वि एवं चेव / नवरं खेत्तनो णं प्रागासस्थिकाए लोयालोयप्पमाणमेत्ते प्रणंते चेव जाव (सु. 2) गुणग्रो अवगाहणागुणे / [4 आकाशास्तिकाय के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए, किन्तु इतना अन्तर है कि क्षेत्र की अपेक्षा आकाशास्तिकाय लोकालोक-प्रमाण (अनन्त) है और गुण की अपेक्षा अवगाहना गुण वाला है। 5. जीवस्थिकाए गं भते ! कतिवपणे कतिगंधे कतिरसे कइफासे ? गोयमा ! अवणे जाव (सु. 2) प्ररूबी जीवे सासते अवट्रिते लोगदम्वे / से समासमो पंचविहे पण्णत्ते; तं जहा-दव्यतो जाव गुणतो। दवतो णं जीवस्थिकाए अणंताई जीवदब्वाइं। खत्तो लोगप्पमाणमेत्ते। कालतो न कयाइ न पासि जाव (सु. 2) निच्चे / भावतो पुण अवणे अगंधे अरसे अफासे / गुणतो उपयोगगुणे / [5 प्र. भगवन् ! जीवास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? [5 उ.| गौतम ! जीवास्तिकाय वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरहित है वह यरूपी है, जीव (आत्मा) है, शाश्वत है, अवस्थित (और प्रदेशों की अपेक्षा) लोकद्रव्य (-लोकाकाश के बराबर) है। संक्षेप में, जीवास्तिकाय के पांच प्रकार कहे गए हैं। वह इस प्रकार--द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा जीवास्तिकाय / द्रव्य की अपेक्षा-जीवास्तिकाय अनन्त जीवद्रव्यरूप है। क्षेत्र की अपेक्षालोक-प्रमाण है / काल की अपेक्षा-~~-वह कभी नहीं था, ऐसा नहीं, यावत् वह नित्य है। भाव की अपेक्षा-जीवास्तिकाय में वर्ण नहीं, गन्ध नहीं, रस नहीं और स्पर्श नहीं है / गुण की अपेक्षाजीवास्तिकाय उपयोगगुण वाला है। - 6. पोग्गलस्थिकाए णं भते ! कतिवणे कतिगंधे० रसे० फासे ? गोयमा ! पंचवण्णे पंचरसे दुगंधे अट्टफासे रूबी अजीवे सासते अदिते लोगदव्वे / से समासओ पंचविहे पण्णत्ते; तं जहा-दव्यतो खेत्तयो कालतो भावतो गुणतो। दन्यतो णं पोग्गलत्थिकाए अणंताई दवाई / खेत्ततो लोगप्पमाणमेत्ते / कालतो न कयाइ न पासि जाव (सु. 2) निच्चे। भावतो वण्णमंते गंध० रस० फासमंते / गुणतो गहणगुणे / [6 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? उ.] गौतम ! पद गलास्तिकाय में पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श हैं। वह रूपी है, अजीव है, शाश्वत और अवस्थित लोकद्रव्य है। संक्षेप में उसके पांच प्रकार कहे गए हैं; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org