________________ 336 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [5 उ.] गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) तपस्वी-प्रत्यनीक, (2) ग्लान-प्रत्यनीक और (3) शैक्ष (नवदीक्षित)-प्रत्यनीक / 6. सुर्य णं भंते ! पडुच्च० पुच्छा / गोयमा ! तो पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा-सुत्तपडिणीए अत्थपडिगोए तदुभयपडिणीए / [6 प्र] भगवन् ! श्रुत की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं ? [6 उ.] गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं / वे इस प्रकार-(१) सूत्रप्रत्यनीक, (2) अर्थप्रत्यनीक और (3) तदुभयप्रत्यनीक / 7. भावं गं भंते ! पडुच्च० पुच्छा। गोयमा ! तो पडिणीया पण्णता, तं जहा-नाणपडिणीए दंसणपडिणीए चरित्तपजिणीए / [7 प्र.] भगवन् ! भाव की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गए हैं ? [7 उ.] गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गए हैं ? वे इस प्रकार--(१) ज्ञान-प्रत्यनीक, (2) दर्शन-प्रत्यनीक और (3) चारित्र-प्रत्यनीक / विवेचन---गुरु-गति-समूह-अनुकम्पा-श्रुत-भाव की अपेक्षा प्रत्यनीक के भेदों को प्ररूपणाप्रस्तुत सात सूत्रों में क्रमश: गुरु अादि को लेकर प्रत्येक के तीन-तीन प्रकारों का निरूपण किया गया है। प्रत्यनीक-प्रतिकूल आचरण करने वाला विरोधी या द्वेषी प्रत्यनीक कहलाता है / गुरु-प्रत्यनीक का स्वरूप---गुरुपद पर आसीन तीन महानुभाव होते हैं-आचार्य, उपाध्याय और स्थविर / अर्थ के व्याख्याता प्राचार्य, सूत्र के दाता उपाध्याय तथा वय, श्रुत और दीक्षापर्याय की अपेक्षा वृद्ध व गीतार्थ साधु स्थविर कहलाते हैं। प्राचार्य, उपाध्याय और स्थविर मुनियों के जाति आदि से दोष देखने, अहित करने, उनके वचनों का अपमान करने, उनके समीप रहने, उनके उपदेश का उपहास करने, उनकी वैयावृत्य न करने आदि प्रतिकूल व्यवहार करने वाले इनके 'प्रत्यनीक' कहलाते हैं। गति-प्रत्यनीक का स्वरूप--मनुष्य आदि गति की अपेक्षा प्रतिकूल आचरण करने वाले गतिप्रत्यनीक कहलाते हैं / इहलोक-मनुष्य पर्याय का प्रत्यनीक वह होता है, जो पंचाग्नि तप करने वाले की तरह अज्ञानतापूर्वक इन्द्रिय-विषयों के प्रतिकुल आचरण करता है / परलोक- जन्मान्तर-प्रत्यनीक वह होता है, जो परलोक सुधारने के बजाय केवल इन्द्रियविषयासक्त रहता है। उभयलोकप्रत्यनीक वह होता है, जो दोनों लोक सुधारने के बदले चोरी आदि कुकर्म करके दोनों लोक बिगाड़ता है, केवल भोगविलासतत्पर रहता है / ऐसा व्यक्ति अपने कुकृत्यों से इहलोक में भी दण्डित होता है, परभव में भी दुर्गति पाता है / ___समूह-प्रत्यनीक का स्वरूप-यहाँ साधुसमुदाय को अपेक्षा तीन प्रकार के समूह बताए हैंकुल, गण और संव। एक प्राचार्य की सन्तति 'कुल', परस्पर धर्मस्नेह सम्बन्ध रखने वाले तीन कुलों का समूह 'गण' और ज्ञान-दर्शन-चारित्रगुणों से विभूषित समस्त श्रमणों का समुदाय 'संघ' कहलाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org