________________ अष्टम शतक : उद्देशक-८] [337 है / कुल गण या संघ के विपरीत आचरण करने वाले क्रमशः कुलप्रत्यनीक, गण-प्रत्यनीक और संघप्रत्यनीक कहलाते हैं। अनुकम्ध्य-प्रत्यनीक का स्वरूप-अनुकम्पा करने योग्य--अनुकम्प्य साधु तीन हैं-तपस्वी, ग्लान (रुग्ण) और शैक्ष / इन तीन अनुकम्प्य साधुनों को माहारादि द्वारा सेवा नहीं करके इनके प्रतिकूल आचरण या व्यवहार करने वाले साधु क्रमशः तपस्वी-प्रत्यनीक, ग्लान-प्रत्यनीक और शैक्षप्रत्यनीक कहलाते हैं। श्रुतप्रत्यनीक का स्वरूप-श्रुत (शास्त्र) के विरुद्ध कथन, प्रचार, अवर्णवाद प्रादि करने वाला, शास्त्रज्ञान को निष्प्रयोजन अथवा शास्त्र को दोषयुक्त बताने वाला श्रुतप्रत्यनीक है / श्रुत तीन प्रकार का होने के कारण श्रुतप्रत्यनीक के भो क्रमश: सूत्रप्रत्यनीक अर्थप्रत्यनीक और तदुभयप्रत्यनीक, ये तीन भेद हैं। भाव-प्रत्यनीक का स्वरूप-क्षायिकादि भावों के प्रतिकूल प्राचरणकर्ता भावप्रत्यनीक है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र, ये तीन भाव हैं। इन तीनों के विरुद्ध आचरण, दोषदर्शन, अवर्णवाद आदि करना क्रमशः ज्ञानप्रत्यनीक, दर्शनप्रत्यनीक और चारित्रप्रत्यनीक है। निर्ग्रन्थ के लिए आचरणीय पंचविध व्यवहार, उनकी मर्यादा और व्यवहारानुसार प्रवृत्ति का फल 8. कइविहे गं भंते ! ववहारे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा—प्रागम-सुत-प्राणा-धारणा-जीए / जहा से तस्थ प्रागमे सिया, प्रागमेणं ववहारं पट्टवेज्जा। णो य से तत्थ प्रागमे सिया; जहा से तस्य सुते सिया, सुएणं ववहारं पट्टवेज्जा / णो वा से तत्थ सुए सिया; जहा से तत्थ प्राणा सिया, प्राणाए ववहारं पट्टवेज्जा / णो य से तत्थ प्राणा सिया; जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहारं पट्टवेज्जा / जो य से तत्थ धारणा सिया; जहा से तस्थ जोए सिया जीएणं बवहारं पटुवेज्जा। इच्चेएहि पंचहि वबहारं पट्टवेज्जा, तं जहा–प्रागमेणं सुएणं आणाए धारणाए जीएणं / जहा जहा से प्रागमे सुए प्राणा धारणा जीए तहा तहा ववहारं पट्टवेज्जा। [8 प्र] भगवन् ! व्यवहार कितने प्रकार का कहा गया है ? [8 उ.] गौतम ! व्यवहार पांच प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार - (1) आगमव्यवहार, (2) श्रुतव्यवहार, (3) आज्ञाव्यवहार, (4) धारणाव्यवहार और (5) जीतव्यवहार / इन पांच प्रकार के व्यवहारों में से जिस साधू के पास आगम (केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, अवधिज्ञान, चौदह पूर्व, दस पूर्व अथवा नौ पूर्व का ज्ञान) हो, उसे उस आगम से व्यवहार (प्रवृत्ति-निवृत्ति) करना चाहिए। जिसके पास आगम न हो, उसे श्रुत से व्यवहार चलाना चाहिए / जहाँ श्रुत न हो वहाँ आज्ञा से उसे व्यवहार चलाना चाहिए / यदि प्राज्ञा भी न हो तो जिस प्रकार की धारणा हो, उस धारणा से व्यवहार चलाना चाहिए। कदाचित् धारणा न हो तो जिस प्रकार का जीत हो, उस 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 382 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org