________________ 338] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जीत से व्यवहार चलाना चाहिए / इस प्रकार इन पांचों पागम, श्रुत, प्राज्ञा, धारणा और जीत से (साधु-साध्वी को) व्यवहार चलाना चाहिए। जिसके पास जिस-जिस प्रकार से पागम, श्रुत, आज्ञा धारणा और जीत, इन पांच व्यवहारों में से जो व्यवहार हो, उसे उस उस प्रकार से व्यवहार चलाना (प्रवृत्ति-निवृत्ति करना) चाहिए। 6. से किमाह भंते ! भागमबलिया समणा निग्गंथा ? इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया जया जहिं जहिं तया तया तहि तहिं अणिस्सियोवस्सितं सम्म ववहरमाणे समणे निग्गंथे प्राणाए पाराहए भवइ / [9 प्र.] भगवन् ! अागमबलिक श्रमण निर्ग्रन्थ (पूर्वोक्त पंचविध व्यवहार के विषय में) क्या कहते हैं ? [9 उ.] (गौतम !) इस प्रकार इन पंचविध व्यवहारों में से जब-जब और जहाँ-जहाँ जो व्यवहार संभव हो, तब-तब और वहां-वहाँ उससे, अनिधितोपाश्रित (राग अौर द्वष से रहित) हो कर सम्यक् प्रकार से व्यवहार (प्रवृत्ति-निवृत्ति) करता हुआ श्रमण निर्गन्थ (तीर्थंकरों की) आज्ञा का आराधक होता है। विवेचन-निर्ग्रन्थ के लिए आचरणीय पंचविध व्यवहार एवं उनकी मर्यादा-प्रस्तुत दो सूत्रों में साधु-साध्वी के लिए साधुजीवन में उपयोगी पंचविध व्यवहारों तथा उनकी मर्यादा का निरूपण किया गया है। व्यवहार का विशेषार्थ—यहाँ प्राध्यात्मिक जगत् में व्यवहार का अर्थ मुमुक्षुओं की यथोचित सम्यक् प्रवृत्ति-निवृत्ति है, अथवा उसका कारणभूत जो ज्ञानविशेष है, उसे भी व्यवहार कह सकते हैं। आगम आदि पंचविध व्यवहार का स्वरूप-(१) प्रागमव्यवहार-जिससे वस्तुतत्त्व का यथार्थ ज्ञान हो, उसे 'पागम' कहते हैं / केवलज्ञान, मन:पर्यायज्ञान, अवधिज्ञान, चौदह पूर्व, दस पूर्व और नौ पूर्व का ज्ञान 'आगम' कहलाता है / आगमज्ञान से प्रवर्तित प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप व्यवहारप्रागमव्यवहार कहलाता है / (2) श्रुत-व्यवहार-शेष आचारप्रकल्प आदि ज्ञान 'श्रुत' कहलाता है। श्रुत से प्रवर्तित व्यवहार श्रुतव्यवहार है / यद्यपि पूर्वो का ज्ञान भी श्रुतरूप है, तथापि अतीन्द्रियार्थविषयक विशिष्ट ज्ञान का कारण एवं सातिशय ज्ञान होने से उसे 'मागम' की कोटि में रखा गया है। (3) प्राज्ञा-व्यवहार-दो गीताथ साधु अलग-अलग दूर देश में विचरते हैं, उनमें से एक का जंघाबल क्षीण हो जाने से विहार करने में असमर्थ हो जाए, वह अपने दूरस्थ गीतार्थसाधु के पास अगीतार्थसाधू के माध्यम से अपने अतिचार या दोष आगम को सांकेतिक गढ भाषा में लिखकर भेजता है, और गूढभाषा में कही हुई या लिखी हुई आलोचना सुन-जान कर वे गीतार्थमुनि भी संदेशवाहक मुनि के माध्यम से उक्त अतिचार के प्रायश्चित्त द्वारा की जाने वाली शुद्धि का संदेश आगम की गूढभाषा में ही कह या लिखकर देते हैं / यह आज्ञाव्यवहार का स्वरूप है। (4) धारणाव्यवहार-किसी गीतार्थ मुनि ने या गुरुदेव ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को अपेक्षा जिस अपराध में जो प्रायश्चित्त दिया है, उसकी धारणा से वैसे अपराध में उसी प्रायश्चित्त का प्रयोग करना धारणाव्यवहार है। धारणाव्यवहार प्रायः प्राचार्य-परम्परागत होता है / (5) जीतव्यवहार-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पात्र (पुरुष) और प्रतिसेवना का तथा संहनन, और धैर्य श्रादि की हानि का विचार करके जो प्रायश्चित्त दिया जाए वह जीतव्यवहार है / अथवा अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा प्राचरित, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org