________________ अष्टम शतक : उद्देशक-८] [ 339 असावद्य, आगम से अबाधित एवं निर्धारित मर्यादा को भी जीतव्यवहार कहते हैं / कारणवश किसी गच्छ में शास्त्रोक्त से अधिक प्रायश्चित्त प्रवृत्त हो गया हो, उसका अनुसरण करना भी जीतव्यवहार है। पूर्व-पूर्व व्यवहार के प्रभाव में उत्तरोत्तर व्यवहार प्राचरणीय-मूलपाठ में स्पष्ट बता दिया है कि 5 व्यवहारों में से व्यवहर्ता मुमुक्षु के पास यदि आगम हो तो उसे आगम से, उसमें भी केवलज्ञानादि पूर्व-पूर्व के अभाव में उत्तरोत्तर से व्यवहार चलाना चाहिए / प्रागम के अभाव में श्रुत से, श्रुत के अभाव में प्राज्ञा से, आज्ञा के अभाव में धारणा से और धारणा के अभाव में जीतव्यवहार से प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप व्यवहार करना चाहिए।' अन्त में फलश्रुति के साथ स्पष्ट निर्देश-जब-जब, जिस-जिस अवसर में, जिस-जिस प्रयोजन या क्षेत्र में, जो-जो व्यवहार उचित हो, तब-तब उस-उस अवसर में, उस-उस प्रयोजन या क्षेत्र में, उस-उस व्यवहार का प्रयोग अनिश्रित-समस्त ग्राशंसा-यशःकीर्ति, ग्राहारादिलिप्सा से रहित तथा अनुपाश्रित-वैयावृत्य करने वाले शिष्यादि के प्रति सर्वथा पक्षपातरहित हो कर (अथवा रागआसक्ति और द्वष से रहित होकर) करना चाहिए। तभी वह भगवदाज्ञाराधक होगा। विविध पहलुत्रों से ऐपिथिक और साम्परायिक कर्मबन्ध से सम्बन्धित प्ररूपरणा 10. काविहे णं भंते ! बंधे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे बंधे पन्नते, तं जहा-इरियावहियाबंधे य संपराइयबंधे य / [10 प्र.] भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? [10 उ.] गौतम ! बन्ध दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-ईपिथिकबन्ध और साम्परायिकबन्ध / 11. इरियावहियं णं भंते ! कम्म कि नेरइओ बंधइ, तिरिक्खजोणिो बंधइ, तिरिक्खजोणिणो बंधइ, मणुस्सो बंधइ, मणुस्सी बंधइ, देवो बंधइ, देवी बंधइ ? गोयमा ! नो नेरइनो बंधइ, नो तिरिक्खजोणिओ बंधइ, नो तिरिक्खजोणिणी बंधइ, नो देवो बंधइ, नो देवी बंधइ, पुवपडिवन्नए पडुच्च मणुस्सा य, मणुस्सोयो य बंधति, पडिवज्जमाणए पहुच्च मगुस्सो वा बंधइ 1, मणुस्सो वा बंधइ 2, मणुस्सा वा बंधति 3, मणस्सीग्रो वा बंधति 4, अहवा मणुस्सो य भणुस्सी य बंधइ 3, अहवा मणुस्सो य मणुस्सीयो य बंधंति 6, अहवा मणुस्सा य मणुस्सी य बंधंति 7, प्रहवा मणुस्सा य मणुस्सोप्रो य बंधंति 8 / [11 प्र.] भगवन् ! ईर्यापथिककर्म क्या नैरयिक बांधता है, या तिर्यञ्चयोनिक बांधता है, या तिर्यञ्चयोनिक स्त्री बांधती है, अथवा मनुष्य बांधता है, या मनुष्य-स्त्री (नारी) बांधती है, अथवा देव बांधता है या देवी बांधती है ? [11 उ.] गौतम ! ईर्यापथिककर्म न नैरयिक बांधता है, न तिर्यञ्चयोनिक बांधता है, न तिर्यञ्चयोनिक स्त्री बांधती है, न देव बांधता है और न ही देवी बांधती है, किन्तु पूर्वप्रतिपन्नक की 1. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 384 2. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 385 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org