________________ दशम शतक : उद्देशक-४] दिन श्यामहस्ती अनगार के मन में कुछ प्रश्न उठे। उनके मन में श्री गौतमस्वामी के प्रति अत्यन्त श्रद्धा-भक्ति जागी। उद्भूत प्रश्नों का समाधान पाने के लिए उनके कदम बढ़े और जहाँ गौतमस्वामी थे, वहाँ आकर उन्होंने वन्दना-- नमस्कारपूर्वक सविनय कुछ प्रश्न पूछे / श्यामहस्ती अनगार के प्रश्न होने से इस उद्देशक का नाम भी श्यामहस्ती है।' ___ कठिन शब्दार्थ-पगतिभद्दए–प्रकृति से भद्र / जायसड्ढे श्रद्धा उत्पन्न हुई। चमरेन्द्र के त्रास्त्रिशक देव : अस्तित्व, कारण एवं सदैव स्थायित्व 5. [1] अस्थि णं भंते ! चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा ? हंता, अत्थि। [5-1 प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमारों के राजा, असुरकुमारों के इन्द्र चमर के प्रायस्त्रिशक देव हैं ? [5-1 उ.] हाँ, (श्यामहस्ती ! चमरेन्द्र के त्रास्त्रिशक देव) हैं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति--चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमाररणोतावत्तीसगा देवा, तावत्तोसगा देवा ? एवं खलु सामहत्थी! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कायंदी नामं नगरी होत्था / वष्णो / तत्थ णं कायंदीए नयरीए तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासगा परिवसंति अड्डा जाव अपरिभूया अभिगयजीवाऽजीवा उवलद्धपुग्ण-पावा जाव विहरति / तए णं ते तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासया पुन्धि उग्गा उग्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी भवित्ता तो पच्छा पासत्था पासथविहारी ओसन्ना ओसन्नविहारी कुसीला कुसीलविहारी अहाछंदा अहाछंदविहारी बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणंति, पा० 2 अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं असेंति, झू० 2 तोसं भत्ताई अणसणाए छेति, छे० 2 तस्स ठाणस्स अणालोइयऽपडिक्कता कालमासे कालं किच्चा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगदेवत्ताए उववन्ना। 5-2 प्र.| भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि असुरकुमारों के राजा असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिशक देव हैं ? [5-2 उ.] हे श्यामहस्ती ! (असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिशक देव होने का) कारण इस प्रकार है-उस काल उस समय में इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारतवर्ष में काकन्दी नाम की नगरी थी। उसका वर्णन यहाँ समझ लेना चाहिए / उस काकन्दी नगरी में (एक दूसरे के) सहायक तेतीस गृहपति श्रमणोपासक (श्रावक) रहते थे / वे धनाढ्य यावत् अपरिभूत थे / वे जीव-अजीव के ज्ञाता एवं पुण्यपाप को हृदयंगम किये हुए विचरण (जीवन-यापन) करते थे। एक समय था, जब वे परस्पर सहायक गहपति श्रमणोपासक पहले उग्र (उत्कृष्ट-प्राचारी), उग्र-विहारी, संविग्न, संविग्नविहारी थे, परन्त तत्पर त् वे पाश्वस्थ, पाश्वस्थावहारी, अवसत्र, अवसन्नविहारी, कुशील, कुशीलविहारी, यथान्छन्द और यथाच्छन्दविहारी हो गए। बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक-पर्याय का पालन कर, अर्धमासिक 1. वियाहपण्णत्तिसुतं (मू. पा. टि.), भा. 2, पृ. 493-494 2. भगवती. अ, ब, पत्र 502 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org