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________________ 604] [व्याध्याप्रज्ञप्तिसूत्र संलेखना द्वारा शरीर को (अपने आप को) कृश करके तथा तीस भक्तों का अनशन द्वारा छेदन (छोड़) करके, उस (प्रमाद-) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल के अवसर पर काल कर वे (तीसों ही) असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के नास्त्रिशक देव के रूप में उत्पन्न हुए हैं। [3] जप्पभिति च णं भंते ! ते कायंदगा तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोबासगा चमरस्स असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसदेवत्ताए उववन्ना तप्पभिति च णं भंते ! एवं वुच्चति 'चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा' ? / [5-3 प्र. (श्यामहस्ती गौतमस्वामी से—) भगवन् ! जब से वे काकन्दीनिवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहपति श्रमणोपासक असुरराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिश-देवरूप में उत्पन्न हुए हैं, क्या तभी से ऐसा कहा जाता है कि असुरराज असुरेन्द्र चमर के (ये) तेतीस देव त्रायस्त्रिशक देव हैं ? (क्या इससे पहले उसके त्रास्त्रिशक देव नहीं थे ?) 6. तए थे भगवं गोयमे सामहत्थिणा अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे संकिते कखिए वितिगिछिए उढाए उठेइ, उ०२ सामहस्थिणा अणगारेणं सद्धि जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, ते० उ० 2 समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वं० 2 एवं वदासी [6] तब श्यामहस्ती अनगार के द्वारा इस प्रकार से पूछे जाने पर भगवान् गौतमस्वामी शंकित, कांक्षित एवं विचिकित्सित (अतिसंदेहास्त) हो गए / वे वहाँ से उठे और श्यामहस्ती अनगार के साथ जहाँ श्रमण भगवान महावीरस्वामी विराजमान थे, वहाँ पाए / तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीरस्वामी को वन्दना-नमस्कार किया और इस प्रकार पूछा 7. [1] अस्थि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा ? हंता, हस्थि / [7.1 प्र.] (गौतमस्वामी ने भगवान् से-) भगवन् ! क्या असुरराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिशक देव हैं ? [7-1 उ.] हाँ, गौतम हैं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ, एवं तं चैव सव्वं (सु. 5.2) भाणियब्वं, जाव तावत्तीसगदेवत्ताए उववण्णा / 7.2 प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि चमर के त्रायस्त्रिशक देव हैं ? इत्यादि पूर्ववत् (5-2 के अनुसार) प्रश्न / 7i-2 उ.] उत्तर में पूर्वकथित त्रास्त्रिशक देवों का समस्त वृत्तान्त कहना चाहिए यावत् वे ही (काकन्दीनिवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहस्थ श्रमणोपासक मर कर) चमरेन्द्र के त्रास्त्रिश देव के रूप में उत्पन्न हुए। [3] भंते ! तप्पभिति च णं एवं बुच्चइ चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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