________________ दशम शतक : उद्देशक-४ ] जो इण→ समठे, गोयमा ! चमरस्स णं असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगाणं देवाणं सासए नामधेज्जे पण्णत्ते, जं न कदायि नासी, न कदायि न भवति, जाव निच्चे अन्वोच्छित्तिनय?ताए / अन्ने चयंति, अन्ने उववज्जति / [7-3 प्र.] भगवन् ! जब से वे (काकन्दीनिवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहस्थ श्रमणोपासक असुरराज असुरेन्द्र चमर के) त्रास्त्रिशक देवरूप में उत्पन्न हुए हैं, क्या तभी से ऐसा कहा जाता है कि असुरराज असुरेन्द्र चमर के त्रास्त्रिशक देव हैं ? (क्या इस से पूर्व उसके त्रायस्त्रिशक देव नहीं थे?) [7-3 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं ; (अर्थात्-ऐसा सम्भव नहीं है) असुरराज असुरेन्द्र चमर के वायस्त्रिशक देवों के नाम शाश्वत कहे गए हैं। इसलिए किसी समय नहीं थे, या नहीं है / ऐसा नहीं, और कभी नहीं रहेंगे, ऐसा भी नहीं। यावत् अव्युच्छित्ति (द्रव्याथिक) नय की अपेक्षा से वे नित्य हैं, (किन्तु पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से) पहले बाले च्यवते हैं, और दूसरे उत्पन्न होते हैं / (उनका प्रवाहरूप से कभी विच्छेद नहीं होता।) विवेचन-असुरेन्द्र के वार्यास्त्रशक देवों को नित्यता-अनित्यता का निर्णय प्रस्तुत तीन सूत्रों (5-6-7) में बताया गया है कि श्यामहस्ती अनगार द्वारा असुरराज चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिशक देवों के अस्तित्व तथा त्रास्त्रिशक होने के कारणों के सम्बन्ध में गौतमस्वामी से पूछा / गौतमस्वामी ने उनका पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनाया। किन्तु जब श्यामहस्ती ने यह पूछा कि क्या इससे पूर्व असुरेन्द्र के वास्त्रिशक देव नहीं थे ? इस पर विनम्र गौतमस्वामी ने भगवान महावीर के चरणों में जा कर अपनी इस शंका को प्रस्तुत करके समाधान प्राप्त किया कि द्रव्याथिकनय की दृष्टि ये त्रायस्त्रिशक देव शाश्वत एवं नित्य हैं, किन्तु पर्यायाथिकनय की दृष्टि से पूर्व के वायस्त्रिशक देव प्रायु समाप्त होने पर च्यवन कर जाते हैं, उनके स्थान पर नये त्रास्त्रिशक देव उत्पन्न होते हैं / परन्तु त्रायस्त्रिशक देवों का प्रवाहरूप से कभी विच्छेद नहीं होता।' 'उम्गा' आदि शब्दों का भावार्थ- उग्गा-भाव से उदात्त या उदारचरित / उग्गविहारीउदार प्राचार वाले / संविग्गा-मोक्षप्राप्ति के इच्छुक अथवा संसार से भयभीत / संविग्गविहारी मोक्ष के अनुकूल आचरण करने वाले। पासस्था-पाशस्थ शरीरादि मोहपाश में बंधे हुए, या पार्श्वस्थ-ज्ञानादि से बहिर्भत / पासस्थविहारी-मोहपाशग्रस्त होकर व्यवहार करने वाले अथवा ज्ञानादि से बहिर्भूत प्रवृत्ति करने वाले / ओसन्ना-उत्तर प्रचार का पालन करने में आलसी / ओसन्नविहारी—जीवनपर्यन्त शिथिलाचारी / कुसीला-ज्ञानादि प्राचार की विराधना करने वाले / कुसोलविहारी-जीवनपर्यन्त ज्ञानादि प्राचार के विराधक। अहाछंदा-अपनी इच्छानुसार सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले / अहाछंद विहारी--जीवनपर्यन्त स्वच्छन्दाचारी / आस्त्रिश देवों का लक्षण जो देव मंत्री और पुरोहित का कार्य करते हैं, वे त्रास्त्रिशक 1. वियाहपण्णत्तिसुतं (मूल पाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 494-495 2. भगवती. अ. अति, पत्र 502 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org