________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कहलाते हैं, ये तेतीस की संख्या में होते हैं।' सहाया : दो रूप : दो अर्थ—(१) सहायाः-परस्पर सहायक / (2) स भाजा:-परस्पर प्रीतिभाजन / / बलीन्द्र के त्रास्त्रिशक देवों की नित्यता का प्रतिपादन 8. [1] अस्थि णं भंते ! बलिस्स वइरोणिदस्स वइरोयणरणो तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा ? हंता, हस्थि / [8-1 प्र.] भगवन् ! वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के श्रायस्त्रिशक देव हैं ? [8-1 उ.] हाँ, गौतम ! हैं। [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति बलिस्स वइरोर्याणदस्स जाव तावत्तीसगा देवा, तावत्तीसगा देवा ? एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दोवे भारहे वासे विन्भेले णामं सग्निवेसे होत्था। वण्णओ। तत्थ णं वेभेले सनिवेसे जहा चमरस्स जाव उववन्ना। जप्पभितिं च णं भंते ! ते विभेलगा तावत्तीसं सहाया गाहावती समणोवासगा बलिस्स बइरोणिदस्स वइरोयणरण्णो सेसं तं चेव (सु.७ [2]) जाव निच्चे अव्वोच्छित्तिनयट्टयाए / अन्ने चयंति, अन्ने उववज्जति / [8-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के तेतीस त्रास्त्रिशक देव हैं ? [8-2 उ.] गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में बिभेल नामक एक सन्निवेश था। उसका वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार करना चाहिए। उस बिभेल सन्निवेश में परस्पर सहायक तेतीस गृहस्थ श्रमणोपासक थे ; इत्यादि जैसा वर्णन चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिशकों के लिए (5-2 में) किया गया है, वैसा ही यहाँ जानना चाहिए, यावत्--वे त्रायस्त्रिशक देव के रूप में उत्पन्न हुए। [प्र.] भगवन् ! जब से वे बिभेलसन्निवेशनिवासी परस्पर सहायक तेतीस गृहपति श्रमणोपासक बलि के त्रास्त्रिशक देव के रूप में उत्पन्न हुए, क्या तभी से ऐसा कहा जाता है कि वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के त्रास्त्रिशक देव हैं ? इत्यादि प्रश्न / [उ.) (इसके उत्तर में) शेष सभी वर्णन (सू. 7-2 के अनुसार) पूर्ववत् जानना चाहिए ; यावत्--वे अव्युच्छित्ति (द्रव्याथिक)-नय की अपेक्षा नित्य हैं। (किन्तु पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से) पुराने (त्रायस्त्रिशक देव) च्यवते रहते हैं, (उनके स्थान पर) दूसरे (नये) उत्पन्न होते रहते हैं, यहाँ तक कहना चाहिए। विवेचनबलीन्द्र के त्रास्त्रिशक देवों की नित्यता-अनित्यता का निर्णय प्रस्तुत 8 वें सूत्र में वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के त्रास्त्रिशक देवों के अस्तित्व, उत्पत्ति एवं द्रव्याथिकनय की 1. 'श्रास्त्रिशा—मंत्रिविकल्पा: ।'–भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 502 2. (क) सहाया:-परस्परेण सहायकारिणः ।वही, पत्र 502 (ख) सभाजा:-परस्परं प्रीतिभाजः ।-वियाहप. मू. पा. टि., भा., 25. 494 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org