________________ 186] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (2) जब राहु चन्द्रमा की ज्योत्स्ना के पास से होकर निकलता है तो लोग कहने लगते हैं—'चन्द्रमा ने राह की कुक्षि का भेदन कर दिया है, अर्थात्-चन्द्रमा राहु को कुक्षि में प्रविष्ट हो गया है / (3) जब राहु चन्द्रमा की ज्योति को प्रावृत करके लौटता है या दूर हो जाता है, तब मनुष्य कहते हैं'राहु ने चन्द्रमा को उगल दिया।' (4) जब राहु चन्द्रमा को प्राच्छादित करके बीच-बीच में से होकर निकलता है, तब लोग कहने लगते हैं—'राहु ने चन्द्रमा को डस लिया / ' (5) इसी प्रकार जब राह चन्द्रमा की कान्ति के नीचे से या दिशा-विदिशाओं को प्रावृत करके रहता है, तब लोग कहते हैं'राहु ने चन्द्रमा को असित कर लिया है।' भगवान् महावीर का कथन. यह है कि राहु ने चन्द्रमा को ग्रस लिया है, ऐसा उनका कथन केवल औपचारिक है, वास्तविक नहीं। राहु की छाया चन्द्र पर पड़ती है / अतः राहु के द्वारा चन्द्र का यह ग्रसन कार्य एक तरह से आवरण (प्राच्छादन) मात्र है, जो कि वैनसिक--स्वाभाविक है, कर्मकृत नहीं / 'वास्तव में ग्रहण राहु और चन्द्रमा के विमान की अपेक्षा से है, किन्तु दोनों विमानों में ग्रासक और ग्रसनीय भाव कथमपि सम्भव नहीं है, क्योंकि दोनों परस्पर प्राश्रयमात्र हैं। अतः यहाँ आच्छाद्य-प्राच्छादक भाव है और इसी को विवक्षावश ग्रास कहा जाता है / यहाँ राहु और चन्द्रमा के विमान की अपेक्षा से 'ग्रहण' कहलाता है।' जया णं राह............... वीईवयह' : भावार्थ. आशय-जब राह अपनी स्वाभाविक, अत्यन्त तीव्र गति से कृष्णादि-विमान द्वारा चल कर बाद में जब उसी विमान से वापिस लौटता है जाना, ये दोनों क्रियाएँ स्वाभाविक गति हैं। तथा विक्रिया या परिचारणा, ये दोनों क्रियाएँ अस्वाभाविक विमानगति हैं / अत: इन दोनों अवस्थाओं में प्रति त्वरा से प्रवृत्ति करता है, इसलिए विसंस्थल चेष्टा वाला होने के कारण वह अपने विमान को ठीक तरह से नहीं चलाता / राहु चन्द्र की दीप्ति को पूर्व दिशा में आच्छादित करके पश्चिम में चला जाता है। इस प्रकार राहु अपने विमान द्वारा चन्द्र के विमान को प्रावृत करता है तो चन्द्र की युति भी आवृत हो जाती है। इसी को प्राम लोग चन्द्रग्रसन या ग्रहण कहते हैं / __ खंजन आदि पदों के अर्थ--खंजनं-दीपक का कज्जल / लाउअं--अलख अथवा तुम्बिका (अपक्व) / भासरासि-भस्मराशि, राख का पुंज / परियारेमाणे- कामक्रीडा करता हुअा।' ध्र वराहु और पर्वराहु का स्वरूप एवं दोनों द्वारा चन्द्र को प्रावृत-अनावृत करने का कार्यकलाप 3. कतिविधे णं भंते ! राह पन्नत्ते? गोयमा ! दुविहे राहू पन्नत्ते, तं जहा--धुवराहू य पव्वराहू य / तत्थ णं जे से धुवराहू से णं 1. (क) वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूल पाठ-टिप्पण युक्त) पृ. 592 से 594 तक (ख) भगवतीसूत्र (प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या) भा, 10 पृ. 211 से 218 तक (ग) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 576 2. (क) भगवती सूत्र (प्रमेयचन्द्रिका व्याख्या) भा. 10, पृ. 210 3. भगवती, अ. वृत्ति, पत्र 576 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org