________________ 250] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [24 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? 24 उ.] गौतम ! धर्मास्तिकाय से जीवों के आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष (नेत्र खोलना), मनोयोग, वचनयोग, और काययोग प्रवृत्त होते हैं। ये और इस प्रकार के जितने भी चल भाव (गमनशील भाव) हैं वे सब धर्मास्तिकाय द्वारा प्रवृत्त होते हैं। धर्मास्तिकाय का लक्षण गतिरूप है। 25. अहम्मास्थिकाए णं भंते ! जीवाणं कि पवत्तति ? गोयमा ! अहम्मऽस्थिकाए णं जीवाणं ठाग-निसोयण-तुयट्टण-मणस्स य एगत्तीभावकरणता, जे यावन्ने तहप्पगारा थिरा भावा सत्वे ते अहम्मऽस्थिकाये पवत्तंति / ठाणलक्खणे णं अहम्मस्थिकाए / [25 प्र.) भगवन् ! अधर्मास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? [25 उ.] गौतम ! अधर्मास्तिकाय से जीवों के स्थान (स्थित रहना), निधीदन (बैठना), त्वरवर्तन (करवट लेना, लेटना या सोना) और मन को एकाग्न करना (आदि की प्रवृत्ति होती है।) ये तथा इस प्रकार के जितने भी स्थिर भाव हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय से प्रवृत्त होते हैं / अधर्मास्तिकाय का लक्षण स्थिलिरूप है। 26. श्रागासथिकाए णं भंते ! जीवाणं अजीवाण य कि पवत्तति ? गोयमा ! आगासथिकाए णं जीवदव्वाण य अजीववव्वाण य भायणभूए / एगेण वि से पुण्णे, दोहि वि पुण्णे, सयं पि माएज्जा। कोडिसएण वि पुण्णे, कोडिसहस्सं पि माएज्जा // 1 // अवगाहणालक्खणे णं आगासस्थिकाए। [26 प्र.] भगवन् ! आकाशास्तिकाय से जीवों और अजीवों को क्या प्रवृत्ति होती है ? [26 उ.] गौतम ! अाकाशास्तिकाय, जीवद्रव्यों और अजीवद्रव्यों का भाजनभूत (आश्रयरूप) होता है / (अर्थात्-आकाशास्तिकाय जीव और अजीवद्रव्यों को अवगाह देता है।) (एक गाथा के द्वारा आकाश का गुण बताया गया है-.) अर्थात्-एक परमाणु से पूर्ण या दो परमाणुगों से पूर्ण (एक प्राकाशप्रदेश में) सौ परमाणु भी समा सकते हैं / सौ करोड़ परमाणुओं से पूर्ण एक आकाशप्रदेश में एक हजार करोड़ परमाणु भी समा सकते हैं / अाकाशास्तिकाय का लक्षण 'अवगाहना' रूप है। 27. जीवऽथिकाए णं भंते ! जीवाणं कि पवत्तति ? गोयमा ! जीवऽस्थिकाए णं जीवे अणंताणं आभिणिबोहियनाणपज्जवाणं अणंताणं सुयनाणपज्जवाणं एवं जहा बितियसए अस्थिकायुद्देसए (स० 2 उ०१० सु० 9 [2]) जाव उवयोगं गच्छति / उवयोगलक्खणे णं जीवे / {27 प्र.] भगवन् ! जीवास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? ..] गौतम ! जीवास्तिकाय के द्वारा जीव अनन्त ग्राभिनिबोधिक ज्ञान की पर्यायों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org