________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [281 को, अनन्त श्रुतज्ञान की पर्यायों को प्राप्त करता है; (इत्यादि सब कथन) द्वितीय शतक के दसवें अस्तिकाय उद्देशक के (सूत्र 6-2 के) अनुसार ; यावत् वह (ज्ञान-दर्शनरूप) उपयोग को प्राप्त होता है, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) जीव का लक्षण उपयोग-रूप है / 28. पोग्गलऽस्थिकाए पुच्छा। गोयमा ! पोग्गलऽस्थिकाए णं जीवाणं ओरालिय-वेउब्धिय-पाहारग-तेया-कम्मा-सोतिदियचविखदिय-धाणिदिय- जिभिदिय-फासिदिय-मणजोग-वइजोग-कायजोग-प्राणापाणूणं च गहणं पवत्तति। गहणलक्खणे णं पोग्गलथिकाए। [28 प्र.] भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय से जीवों की क्या प्रवृत्ति होती है ? [28 उ.] गौतम ! पुद्गलास्तिकाय से जीवों के प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण, श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिहन्द्रिय, स्पर्शन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग और श्वास-उच्छ्वास का ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती है। पुद्गलास्तिकाय का लक्षण 'ग्रहण' विवेचन--प्रस्तुत छह सूत्रों में लोक के स्वरूप तथा धर्मास्तिकाय आदि पञ्चास्तिकाय की प्रवृत्ति एवं लक्षण, सप्तम प्रवर्तनद्वार के द्वारा प्ररूपित किये गये हैं। लोक, अस्तिकाय और प्रकार-प्रस्तूत सूत्र में लोक को पंचास्तिकाय रूप बताया है / अस्ति का अर्थ है प्रदेश और काय का अर्थ है समूह, अर्थात्--प्रदेशों के समूह वाले द्रव्यों को 'अस्तिकाय' कहते हैं / वे पांच हैं-धर्म, अधर्म, अाकाश, जीव और पुद्गल / कई दार्शनिक ब्रह्ममय लोक कहते हैं, उनका निराकरण इस सूत्र से हो जाता है। इनमें से सिवाय अाकाशतत्व के अलोक में और कुछ नहीं है।' धर्मास्तिकाय आदि का स्वरूप--धर्मास्तिकाय-गति-परिणाम वाले जीव और पुदगलों की गमनादि चलक्रिया में सहायक / यथा—मछली के गमन में जल सहायक होता है / / अधर्मास्तिकाय-स्थिति-परिणाम वाले जीव और पुद्गलों की स्थिति आदि अवस्थानक्रिया में सहायक / यथा-विश्रामार्थ ठहरने वाले पथिकों के लिए छायादार वृक्ष / प्राकाशास्तिकाय--जीवादि द्रव्यों को अवकाश देने वाला / यथा- एक दीपक के प्रकाश से परिपूर्ण स्थान में अनेक दीपकों का प्रकाश समा जाता है। जीवास्तिकाय-जिसमें उपयोगरूप गुण हो / पुदगलास्तिकाय -- जिस में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हों तथा जो मिलने-बिछुड़ने के स्वभाव वाला हो। प्रत्येक अस्तिकाय के पांच-पांच भेद-धर्मास्तिकाय के पांच भेद-द्रव्य की अपेक्षा एक द्रव्य, क्षेत्र की अपेक्षा लोकपरिमाण (समग्र लोकव्याप्त), लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशी है। काल 1. (क) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 608 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2191 2. तत्त्वार्थसूत्र, (पं. सुखलालजी) अ. 5, सू, 1 से 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org