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________________ 282] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र की अपेक्षा त्रिकालस्थायी है तथा ध्र व, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय और अवस्थित है / भाव की अपेक्षा वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-रहित अरूपी है / गुण की अपेक्षा गति गुण वाला / अधर्मास्तिकाय के पांच भेद-धर्मास्तिकाय के समान हैं / केवल गुण की अपेक्षा यह स्थितिगुण वाला है। आकाशास्तिकाय के पांच भेद-इसके तीन भेद तो धर्मास्तिकाय के समान हैं / किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा लोकालोक व्यापी है। अनन्त प्रदेशो है। लोकाकाश असंख्यातप्रदेशी है। गुण की अपेक्षा अवगाहनागुण वाला है। जीवों और पुद्गलों को अवकाश देना ही इसका गुण है। उदाहरणार्थ- एक दीपक के प्रकाश से भरे हुए मकान में यदि सौ यावत् हजार दीपक भी रखे जाएँ तो उनका प्रकाश भी उसी मकान में समा जाता है, बाहर नहीं निकलता। इसी प्रकार पुद्गलों के परिणाम की विचित्रता होने से एक, दो, संख्यात, असंख्यात, यावत् अनन्त परमाणुओं से पूर्ण एक प्रकाशप्रदेश में एक से लेकर अनन्त परमाणु तक समा सकते हैं / पुद्गल-परिणामों की विचित्रता को स्पष्ट करने हेतु वत्तिकार ने एक और दृष्टान्त प्रस्तुत किया है-प्रौषधि विशेष से परिणमित एक तोले भर पारद की गोली, सौ तोले सोने की गोलियों को अपने में समा लेती है। पारदरूप में परिणत उस गोली पर औषधि विशेष का प्रयोग करने पर वह तोले भर की पारे की गोली तथा सौ तोले भर सोना दोनों पृथक-पृथक् हो जाते हैं / यह सब पुद्गल-परिणामों की विचित्रता है / इसी प्रकार एक परमाणु से पूर्ण एक आकाशप्रदेश में अनन्त परमाणु भी समा सकते हैं। जीवास्तिकाय के पांच भेद-द्रव्य को अपेक्षा से अनन्त-द्रव्यरूप है, क्योंकि जीव पृथक-पृथक् द्रव्यरूप अनन्त हैं / क्षेत्र की अपेक्षा लोकपरिमाण है / एक जीव की अपेक्षा जीव असंख्यातप्रदेशी है और सभी जीवों के प्रदेश अनन्त हैं / काल की अपेक्षा जीव आदि-अन्त रहित है (ध्र व, नित्य एवं शाश्वत है) / भाव की अपेक्षा वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-रहित है, अरूपी है तथा चेतना गुण वाला है / गुण की अपेक्षा उपयोग गण रूप है। पुदगलास्तिकाय के पांच भेद-द्रव्य की अपेक्षा पुद्गल अनन्त द्रव्यरूप है / क्षेत्र की अपेक्षा लोक में ही है और परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी तक है / काल की अपेक्षा पुद्गल भी आदि-अन्तरहित है (निश्चयदृष्टि से वह भी ध्र व, शाश्वत और नित्य है)। भाव की अपेक्षा वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श सहित है. यह रूपी और जड़ है / गुण को अपेक्षा 'ग्रहण' गुण वाला है / अर्थात्-ौदारिक शरीर आदि रूप से ग्रहण किया जाना अथवा इन्द्रियों से ग्रहण होना (इन्द्रियों का विषय होना), परस्पर मिलना बिछुड़ना पुद्गलास्तिकाय का गुण है।' कठिनशब्दार्थ ---भासुम्मेस--भाषण तथा उन्मेष-नेत्रव्यापारविशेष / ठाण-निसीयण-तुयट्टण----- ठाण-स्थित होना, कायोत्सर्ग करना, निसोयण-बैठना, तुयट्टण-शयन करना, करवट बदलना / एगतीभावकरणता—एकत्रीभावक रण-एकाग्र करना / भायणभूए–भाजनभूत--अाधारभूत / आणापाणूणं-पान -प्राण-~श्वासोच्छ्वासों का / 1. (क) तत्त्वार्थ सूत्र (पं. सुखलालजी) अ. 5, मू. 1 से 10 तक (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2192-93 (ग). भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 608 2. बही, अ. वृत्ति, पत्र 608 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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