________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [283 पंचास्तिकायप्रदेश-प्रद्धासमयों का परस्पर जघन्योत्कृष्ट प्रदेश-स्पर्शनानिरूपण : 8 अस्तिकायस्पर्शनाद्वार 29. [1] एगे भंते ! धम्मऽस्थिकायपएसे केवतिहि धम्मऽस्थिकायपएसेहि पुढे ? गोयमा ! जहन्नपए तोहि, उक्कोसपए छहिं / [26-1 प्र] भगवन् ! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश, कितने धर्मास्तिकाय के प्रदेशों द्वारा स्पृष्ट (छुपा हुआ) होता है ? [26-1 उ.] गौतम ! वह जघन्य पद में तीन प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में छह प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। [2] केवतिएहि अधम्मऽस्थिकायपएसेहि पुढे ? जहन्नपए चउहि, उक्कोसपदे सत्तहिं / [29-2 प्र.] (भगवन् ! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश,) अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [26-2 उ.] (गौतम ! वह) जघन्य पद में चार प्रदेशों से और उत्कृष्ट पद में सात अधर्मास्ति काय प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [3] केवतिएहि प्रागासस्थिकायपदेसेहिं पुढे ? सहि। [29-3 प्र. वह (धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश) आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [26-3 उ.] (गौतम ! वह) सात (आकाश-) प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [4] केवतिएहि जीवऽस्थिकायपदेसेहिं पुट्ठ ? अणतेहिं / [26-4 प्र.] (भगवन् ! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश) जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [26-4 उ.] (गौतम ! वह) अनन्त (जीव-) प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [5] केवतिएहि पोग्गलऽस्थिकायपएसेहि पु? ? अणंतेहिं / [26-5 प्र.] (भगवन् ! वह) पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट होता है ? [26-5 उ.] (गौतम ! वह) अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / [6] केवतिएहिं श्रद्धासमएहिं पुढे ? सिय पुढे, सिय नो पुढे / जइ पुढे नियम अणंसेहिं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org