________________ तेरहवां शतक : उद्देशक 4] [279 22. एवं तमा वि। [22] तमा (अधो) दिशा के विषय में भी (समग्र वर्णन इसी प्रकार (कहना चाहिए / ) विवेचन--दिशात्रों के गुणनिष्पन्न नाम उनकी आदि, उद्गम, आदि-प्रदेश प्रदेशविस्तार, उत्तरोत्तर वद्धि विस्तार) प्रदेशसंख्या. उसका अन्त, आकार प्रादि के विषय में शंका-समाधान प्र 7 सूत्रों (16 से 22 सू. तक) में प्रतिपादित किया गया है / ___ दसों दिशाओं के गुणनिष्पन्न नाम क्यों ? (1) ऐन्द्री-पूर्वदिशा का अधिष्ठाता देव इन्द्र होने से, (2) आग्नेयी-अग्निकोण का स्वामी 'अग्नि' देवता होने से। (3) नैऋती-नैऋत्यकोण का स्वामी नैऋति होने से / (4) याम्या दक्षिणदिशा का अधिष्ठाता यम होने से / (5) वारुणी--- पश्चिम दिशा का अधिष्ठाता वरुण होने से। (6) वायव्य–वायुकोण का अधिष्ठाता वायुदेव होने से / (7) सौम्या---उत्तर दिशा का स्वामी सोम (चन्द्रमा) होने से / (8) ऐशानी-ईशानकोण का अधिष्ठाता ईशान देव होने से / इस प्रकार अपने-अपने अधिष्ठाता देवों के नाम पर से ही इन दिशाओं और विदिशात्रों के ये गुणनिष्पन्न नाम प्रचलित हैं। ऊध्वंदिशा को विमला इसलिए कहते हैं कि ऊपर अन्धकार नहीं है, इस कारण वह निर्मल है / अधोदिशा गाल अन्धकारयुक्त होने से 'तमा' कहलाती है, तमा रात्रि को कहते हैं, यह दिशा भी रात्रितुल्य होने से तमा है।' उत्पत्तिस्थान आदि-इन दसों दिशाओं के उत्पत्तिस्थान पाठ रुचकप्रदेश हैं / चारों दिशाएँ मूल में द्विप्रदेशी हैं और आगे-मागे दो-दो प्रदेशों की वृद्धि होती जाती है / विदिशाएँ मूल में एक प्रदेश वालो निकली हैं और अन्त तक एक प्रदेशी ही रहती हैं। इन के प्रदेशों में वृद्धि नहीं होती। ऊर्ध्व दिशा और अधोदिशा मूल में चतुष्प्रदेशी निकली हैं और अन्त तक चतुष्प्रदेशी ही रहती हैं। इनमें भी वृद्धि नहीं होती / 2 लोक-पंचास्तिकाय-स्वरूपनिरूपण : सप्तम प्रवर्तनद्वार 23. किमियं भंते ! लोए ति पवच्चइ ? गोयमा! पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोए त्ति फ्युच्चइ, तं जहा-धम्मऽस्थिकाए, अधरमऽस्थिकाए, जाव पोग्गलऽस्थिकाए। [23 प्र.] भगवन् ! यह लोक क्या कहलाता है-लोक का स्वरूप क्या है ? [23 उ.] गौतम ! पंचास्तिकायों का समूहरूप ही यह लोक कहलाता है। वे पंचास्तिकाय इस प्रकार हैं-(१) धर्मास्तिकाय, (2) अधर्मास्तिकाय, यावत् (प्राकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय) पुद्गलास्तिकाय / 24. धम्मऽथिकाए णं भंते ! जीवाणं कि पवत्तति ? गोयमा ! धम्मास्थिकाए जं जीवाणं आगमण-गमण-भासुम्मेस-मणजोग-वइजोग-कायजोगा, जे यावन्ने तहप्पगारा चला भावा सव्वे ते धम्मऽस्थिकाए पवत्तंति / गतिलक्खणे णं धम्मत्थिकाए। 1. (क) भगवती. श. 10 उ. 1, मू. 6-7. में देखिये। (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2187 2. वही, (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2188 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org