________________ 608] [व्याख्यानप्तिसूत्र [26 प्र.] भगवन् ! प्रौदयिक भाव किस प्रकार का कहा गया है ? [29 उ.] गौतम ! औदयिक भाव दो प्रकार का कहा गया है / यथा-उदय और उदयनिष्पन्न / इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा अनुयोगद्वार-सूत्रानुसार छह नामों की समग्र वक्तव्यता, यावत्--यह है वह सान्निपातिकभाव (तक) कहनी चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है / भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतमस्वामी) * यावत् विचरते हैं। विवेचन-औदयिक आदि छह भाव-भाव छह प्रकार के हैं--प्रौदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सान्निपातिक / इनमें प्रौदयिक का स्वरूप इसके भेदों से स्पष्ट है। वे दो भेद यों हैं---उदय और उदयनिष्पन्न / उदय का अर्थ है-पाठ कर्मप्रकृतियों का फलप्रदान करना / उदयनिष्पन्न के दो भेद हैं / यथा—जीवोदयनिष्पन्न, और अजीवोदयनिष्पन्न / कर्म के उदय से जीव में होने वाले नारक, तिर्यंच आदि पर्याय जीवोदयनिष्पन्न कहलाते हैं / कर्म के उदय से अजीव में होने वाले पर्याय अजीवोदयनिष्पन्न कहलाते हैं। जैसे कि औदारिकादि शरीर तथा औदारिकादि शरीर में रहे हुए वर्णादि / ये औदारिकशरीरनामकर्म के उदय से पुद्गलद्रव्य रूप अजीव में निष्पन्न होने से 'जीवोदयनिष्यन्न' कहलाते हैं / बाकी पांच भावों का स्वरूप अनुयोगद्वारसूत्र में उक्त षट्नाम की वक्तव्यता से जान लेना चाहिए।' // सत्तरहवां शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / / 1. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2604 देखें--नंदिसुत्तं अणुयोगद्दाराइं च (महावीर जैन विद्यालय-प्रकाशित) सू. 233-59, पृ. 108-16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org