________________ 164] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [38] इस प्रकार जहाँ वैक्रियशरीर है, वहाँ एक से लेकर उत्तरोत्तर (अनन्त तक), (वक्रियपुद्गलपरिवर्त्त जानना चाहिए / जहाँ वैक्रियशरीर नहीं है, वहाँ (प्रत्येक नैरयिक के) पृथ्वोकायभव में (वैक्रियपुद्गल परिवर्त के विषय में) कहा, उसी प्रकार, यावत् (प्रत्येक) वैमानिक जीव के वैमानिक भव पर्यन्त कहना चाहिए। ___39. तेयापोग्गलपरियट्टा कम्मापोग्गलपरियट्टा य सम्वत्थ एक्कुत्तरिया भाणितव्वा / मणपोग्गलपरियट्टा सम्वेसु पंचेंदिएसु एगुत्तरिया। विलिदिएसु नत्थि / वइपोग्गलपरियट्टा एवं चेव, नवरं एगिदिएसु 'नस्थि' भाणियन्वा / प्राणापाणुपोग्गलपरियट्टा सम्वत्थ एकुत्तरिया जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते। _ [39] तैजस पुद्गल-परिवर्त और कार्मण-पुद्गल-परिवर्त्त सर्वत्र (चौबीस ही दण्डकवर्ती जीवों में) एक से लेकर उत्तरोत्तर अनन्त तक कहने चाहिए। मनः पुदगल-परिवर्त समस्त पंचेन्द्रिय जीवों में एक से लेकर उत्तरोत्तर यावत् अनन्त तक कहने चाहिए। किन्तु विकलेन्द्रियों (द्वि-त्रिचतुरिन्द्रिय वाले जीवों) में मनःपुद्गलपरिवर्त्त नहीं होता। इसी प्रकार (मन पुद्गलपरिवर्त्त के समान) वचन-पुद्गल-परिवर्त के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। विशेष (अन्तर) इतना ही है कि वह (वचनपुद्गल -परिवर्त) एकेन्द्रिय जीवों में नहीं होता। पान-प्राण (श्वासोच्छवास) पुद्गल-परिवर्त भी सर्वत्र (सभी जीवों में) एक से लेकर अनन्त तक जानना चाहिए। (ऐसा ही कथन) यावत् वैमानिक के वैमानिक भव तक कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत बारह सूत्रों (सू. 28 से 36 तक) में प्रत्येक वर्तमानकालिक नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के अतीत-अनागत नैरयिकत्वादि रूप के सप्तविध पुद्गल-परिवत्र्तों की संख्या का निरूपण किया गया है। वैक्रियपुद्गलपरिवर्त-एक-एक नैरयिक जीव के नैरयिक भव में रहते हुए अनन्त वैक्रिय पुद्गलपरिवर्त्त अतीत में हुए हैं, तथा भविष्यकाल में किसी के होंगे, किसी के नहीं। जिसके होंगे, उसके जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होंगे। इसके अतिरिक्त वायुकाय, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और व्यन्तरादि में से जिन-जिन में वैक्रिय शरोर है उन-उनके वैक्रिय पुद्गलपरिवर्त एकोत्तरिक (अर्थात् एक, दो, तीन संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त तक) कहता चाहिए / जहाँ अप्कायिक आदि प्रत्येक जीवों में वैक्रियशरीर नहीं है, वहाँ वैक्रिय पुद्गल-परिवर्त्त भी नहीं होता।' तेजस-कार्मण-परिवर्त-तैजस और कार्मण ये दोनों शरीर समस्त संसारी जीवों के होते हैं। इसलिए नारकादि चौबीस दण्डकवर्ती सभी जीवों में तेजस-कार्मण पुद्गलपरिवर्त्त अतीत और भविष्यकाल में एक से लेकर उत्तरोत्तर अनन्त तक कहने चाहिए। 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 569 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 4, पृ. 2041 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 569 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org